भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 447 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 के तहत दोषसिद्ध पांच अपीलकर्ताओं को बरी कर दिया है। न्यायालय ने गवाहों की गवाही में विरोधाभास और अपराध के प्रमुख तत्वों को सिद्ध करने के लिए साक्ष्यों की कमी का हवाला दिया।
यह निर्णय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने हुटू अंसारी उर्फ फुतू अंसार व अन्य बनाम झारखंड राज्य मामले में सुनाया। इस निर्णय में ट्रायल कोर्ट और झारखंड हाईकोर्ट द्वारा दिए गए दोषसिद्धि और सजा के आदेश को पलट दिया गया।
पृष्ठभूमि
यह मामला झारखंड के लोहरदगा जिले में स्थित खाता संख्या 116, प्लॉट संख्या 698 के 28 डिसमिल जमीन को लेकर हुए विवाद से संबंधित है। 25 अप्रैल 2005 को विवादित भूमि शिकायतकर्ता के परिवार को सौंप दी गई थी, क्योंकि आरोपी द्वारा उपायुक्त के समक्ष दाखिल अपील खारिज कर दी गई थी।
धारा 156(3) सीआरपीसी के तहत की गई शिकायत के अनुसार, 22 मई 2005 को आरोपी शिकायतकर्ता के घर में घुस आए, चोरी की, और जातिसूचक गालियां दीं।
अभियोजन पक्ष
PW-3 (PW-1 की पत्नी) द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत में आरोप लगाया गया कि आरोपी संख्या 2 और 9 लोहे की रॉड लेकर आए, घर का ताला तोड़ा और ₹3,000 मूल्य की वस्तुएं चुरा लीं। शिकायत में यह भी दावा किया गया कि आरोपियों ने परिवार को धमकाया और गांव वालों की मौजूदगी में जातिसूचक गालियां दीं।
अभियोजन पक्ष ने जो गवाह प्रस्तुत किए, वे सभी परिवार के सदस्य थे: PW-1 और PW-3 (पति-पत्नी), PW-4 (उनका बेटा), PW-6 (PW-1 का भाई), और PW-2 (PW-6 का बेटा)। PW-8 ने जांच शुरू की, जबकि PW-5 ने चार्जशीट दाखिल की। PW-7 को घटना की कोई जानकारी नहीं थी।
न्यायालय का विश्लेषण
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष के सभी गवाह आपस में संबंधित थे और लिखित शिकायत व मौखिक गवाही के बीच विरोधाभास पाए गए।
न्यायालय ने कहा:
“शिकायत में घटनास्थल को ‘घर’ बताया गया था, जबकि सभी गवाहों ने कथित घटना को खेत (जो कि विवादित भूमि थी) में घटित बताया।”
न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(r), (s), और (f) के अंतर्गत अपराध के आवश्यक तत्व सिद्ध नहीं हुए:
- कोई ऐसा प्रमाण नहीं था जिससे यह सिद्ध हो कि जातिसूचक गालियां “सार्वजनिक दृष्टि” में दी गईं, जैसा कि उपधारा (r) और (s) में अपेक्षित है।
- भूमि से “अवैध कब्जा” या “बलपूर्वक बेदखली” का कोई प्रमाण नहीं था, जैसा कि उपधारा (f) में आवश्यक है।
- मौखिक साक्ष्य से यह भी सिद्ध नहीं हुआ कि घर में जबरन प्रवेश (trespass) किया गया था। किसी भी गवाह ने ताला तोड़े जाने या घर में घुसने की पुष्टि नहीं की।
- PW-1 ने अपनी जिरह में स्वीकार किया कि घटना के समय केवल उसकी पत्नी, भाई और भतीजा ही उपस्थित थे, जिससे “सार्वजनिक दृष्टि” में घटना होने का दावा कमजोर हो गया।
निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने दोषसिद्धियों को रद्द कर दिया और अपील को स्वीकार कर लिया:
“उपरोक्त तर्कों के आधार पर हमें मजिस्ट्रेट न्यायालय द्वारा दी गई दोषसिद्धि, जिसे हाईकोर्ट ने भी पुष्टि दी, को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं दिखाई देता। हम मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश, जिसे हाईकोर्ट ने बरकरार रखा था, को निरस्त करते हैं और अपीलकर्ताओं को बरी करते हैं।”
न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि यदि कोई जमानती बॉन्ड भरवाया गया हो, तो उसे निरस्त कर दिया जाए और लंबित सभी आवेदनों का निपटारा कर दिया जाए।