छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत अपराध तभी सिद्ध होगा जब अभियोजन यह संदेह से परे सिद्ध करे कि आरोपी को पीड़ित की एससी/एसटी समुदाय से होने की जानकारी थी।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने यह निर्णय क्रिमिनल अपील संख्या 210/2021 में दिया, जो प्रमोद उर्फ नन्हू तिवारी (जिला गौरेला-पेंड्रा-मरवाही के कुम्हारी गांव निवासी) द्वारा दायर की गई थी। अपीलकर्ता ने विशेष न्यायाधीश द्वारा POCSO अधिनियम, IPC और SC/ST एक्ट के तहत दी गई सजा को चुनौती दी थी।
मामला क्या था?
यह मामला 7 फरवरी 2018 का है, जब एक 6 वर्षीय जनजातीय बालिका को उसके घर के आंगन से झूला झूलते समय आरोपी ने बिस्कुट का लालच देकर अगवा किया और पास के जंगलनुमा पहाड़ी इलाके (डोंगरी) में ले जाकर यौन शोषण किया। बालिका के पिता बदन सिंह पाव ने मौके पर आरोपी को रंगेहाथों पकड़ा और बेटी को बचा लिया।
FIR दर्ज होने के बाद, IPC की धारा 366 और 376(2), POCSO अधिनियम की धारा 6, और SC/ST एक्ट की धाराएं 3(1)(b-i)(b-ii) और 3(2)(v) के तहत आरोप तय किए गए। विशेष न्यायालय ने आरोपी को दोषी ठहराते हुए POCSO और SC/ST एक्ट के तहत आजीवन कारावास तथा IPC के तहत 10 वर्ष की सजा सुनाई थी।
हाईकोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ:
हाईकोर्ट ने POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन यह ध्यान में रखते हुए कि अपराध 2019 के संशोधन से पहले हुआ था (जिसमें न्यूनतम 20 साल की सजा अनिवार्य की गई थी), सजा को घटाकर 14 वर्ष के कठोर कारावास में परिवर्तित कर दिया।
हालांकि, SC/ST एक्ट की धारा 3(2)(v) के तहत दी गई सजा को निरस्त कर दिया गया।
कोर्ट ने कहा:
“SC/ST एक्ट की धारा 3(2)(v) तभी लागू होती है जब यह साबित हो कि आरोपी को यह ज्ञात था कि पीड़िता अनुसूचित जाति या जनजाति से संबंधित है।”
सुप्रीम कोर्ट के Patan Jaman Vali बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और Shashikant Sharma बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामलों का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा:
“रिकॉर्ड में उपलब्ध समग्र साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई कानूनी रूप से स्वीकार्य प्रमाण नहीं है जिससे यह साबित हो कि आरोपी को पीड़िता की जाति की जानकारी थी।”
इसी आधार पर कोर्ट ने SC/ST एक्ट के तहत आजीवन कारावास की सजा रद्द कर दी।
बाल साक्षी की विश्वसनीयता को कोर्ट ने माना
कोर्ट ने Rameshwar बनाम राजस्थान राज्य और State of Punjab बनाम गुरमीत सिंह जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा:
“यदि पीड़िता (विशेषकर बाल पीड़िता) की गवाही स्पष्ट, सुसंगत और विश्वसनीय हो, तो उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है।”
अंतिम निर्णय:
- POCSO अधिनियम की धारा 6 के तहत दोषसिद्धि: बरकरार
सजा: 14 वर्ष का कठोर कारावास - IPC धारा 366 (अपहरण) के तहत दोषसिद्धि: बरकरार
सजा: 10 वर्ष का कठोर कारावास - SC/ST अधिनियम की धाराएं 3(2)(v) और 3(1)(b-i)(b-ii): निरस्त
- सभी सजाएं साथ-साथ चलेंगी (Concurrent Sentences)
- प्रत्येक अपराध के लिए ₹1000 का जुर्माना: यथावत
कोर्ट ने जेल अधीक्षक को निर्देश दिया कि वह अपीलकर्ता को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के अधिकार की जानकारी दें और इसके लिए विधिक सेवा समिति की सहायता उपलब्ध कराएं।
कानूनी प्रतिनिधित्व
- अपीलकर्ता की ओर से: वरिष्ठ अधिवक्ता वाई.सी. शर्मा, सहायक अधिवक्ता सचिन निधि व विशाल चंद्रवंशी
- राज्य की ओर से: पैनल अधिवक्ता मलय जैन
