यदि समझौता होने पर कुछ अपराध रद्द किए जाते हैं, तो उसी घटना से जुड़े अन्य अपराधों के लिए FIR जारी नहीं रह सकती: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि हाईकोर्ट किसी एफआईआर (FIR) के कुछ अपराधों को समझौते के आधार पर रद्द कर देता है, तो उसी घटनाक्रम (Single Transaction) से जुड़े अन्य अपराधों के लिए एफआईआर को बनाए रखना उचित नहीं है। कोर्ट ने कहा कि यदि समझौता “व्यक्तिगत अपराधों” को रद्द करने के लिए पर्याप्त है, तो यह डकैती जैसे गंभीर आरोपों की भी बुनियाद को कमजोर करता है जो उन्हीं तथ्यों पर आधारित हैं।

17 नवंबर, 2025 को दिए गए एक फैसले में, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें एफआईआर को विभाजित कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने मारपीट और धमकी के आरोपों को तो समझौते के आधार पर रद्द कर दिया था, लेकिन डकैती के आरोप को यह कहते हुए बरकरार रखा था कि यह समाज के खिलाफ अपराध है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस “आंशिक अभियोजन” (Partial Prosecution) को अनुचित करार दिया और संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए पूरी एफआईआर को रद्द कर दिया।

मामला क्या था?

यह मामला प्रशांत प्रकाश रत्नापारखी और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य से संबंधित है। विवाद की जड़ 4 अक्टूबर, 2024 को पी.जी. पब्लिक स्कूल, नंदुरबार में हुई एक घटना थी। स्कूल के सीनियर क्लर्क, राजेंद्र पुरा राठौड़ (प्रतिवादी संख्या 2) ने एफआईआर दर्ज कराई थी कि कुछ लोग स्कूल में आए, “इंजीनियरिंग और बी.ए.एम.एस. फाइलों” की मांग की, कर्मचारियों के साथ मारपीट की और जबरन चेक बुक, स्टैम्प, फाइलें, कंप्यूटर और नकदी ले गए।

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पुलिस ने भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया, जिसमें डकैती (धारा 310(2)) [IPC की धारा 395 के समान] भी शामिल थी।

बाद में, शिकायतकर्ता और आरोपियों के बीच बुजुर्गों के हस्तक्षेप से समझौता हो गया। शिकायतकर्ता ने हलफनामा देकर बताया कि सारा सामान वापस मिल गया है और वह केस आगे नहीं बढ़ाना चाहता।

हाईकोर्ट का दृष्टिकोण

आरोपियों ने समझौते के आधार पर एफआईआर रद्द करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 31 जनवरी, 2025 को अपना फैसला सुनाते हुए बीएनएस की धारा 115(2) (गंभीर चोट), 351(2) (आपराधिक धमकी) और 351(3) (अपमान) के तहत दर्ज अपराधों को रद्द कर दिया।

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हालाँकि, हाईकोर्ट ने डकैती (धारा 310(2) BNS) के आरोप को रद्द करने से इनकार कर दिया। हाईकोर्ट का तर्क था कि डकैती का अपराध शिकायतकर्ता के लिए व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि यह स्कूल की संपत्ति से जुड़ा था और एक गंभीर अपराध था।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: ‘तथ्य अविभाज्य हैं’

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया। पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति मेहता ने कहा कि एफआईआर में लगाए गए सभी आरोप एक ही घटनाक्रम (Single Transaction) से उत्पन्न हुए हैं और उन्हें अलग-अलग नहीं देखा जा सकता।

फैसले के पैरा 13 में कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की:

“सभी अपराधों का आधार बनने वाला तथ्यात्मक मैट्रिक्स अविभाज्य (Inseparable) है और एक ही संव्यवहार से उत्पन्न होता है। वह समझौता जिसे अन्य अपराधों को रद्द करने के लिए वास्तविक और पर्याप्त माना गया, वह समान रूप से डकैती के आरोप की नींव को भी कमजोर करता है, जो उन्हीं आरोपों और परिस्थितियों पर टिका है।”

कोर्ट ने कहा कि जब शिकायतकर्ता के स्वैच्छिक हलफनामे के आधार पर हाईकोर्ट ने अन्य अपराधों को रद्द कर दिया, तो उसी एफआईआर को डकैती के अपराध के लिए बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं था।

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‘बेईमानी का इरादा’ नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने डकैती के आरोप के कानूनी पहलुओं पर भी गौर किया। कोर्ट ने कहा कि डकैती साबित करने के लिए पहले ‘लूट’ और ‘चोरी’ का साबित होना जरूरी है। चोरी का मूल तत्व “बेईमानी का इरादा” (Dishonest Intention) है।

इस मामले में, कोर्ट ने पाया कि आरोपियों का मुख्य उद्देश्य संस्थागत फाइलें ढूंढना था, न कि चोरी करना। नकदी और कंप्यूटर ले जाना उस विवाद का एक आकस्मिक हिस्सा था। चूंकि सारा सामान वापस कर दिया गया और समझौता हो गया, इसलिए ‘बेईमानी के इरादे’ का तत्व भी समाप्त हो गया।

निष्कर्ष: सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए एफआईआर सी.आर. नंबर 270 ऑफ 2024 और उससे जुड़ी सभी कार्यवाहियों को पूर्ण रूप से रद्द कर दिया।

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