नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा हत्या के दोषियों की सजा में की गई कमी को “पूरी तरह से असंगत” बताते हुए खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मासिह की पीठ ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 362 का हवाला देते हुए कहा कि अंतिम निर्णय पर हस्ताक्षर हो जाने के बाद, अदालत उसे केवल लिपिकीय या अंकगणितीय त्रुटियों तक ही संशोधित कर सकती है, उसके आगे नहीं।
मामला 2018 में हाईकोर्ट द्वारा सुनाए गए उस फैसले से जुड़ा है जिसमें तीन व्यक्तियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। लेकिन 2019 में हाईकोर्ट ने एक अपील पर सुनवाई करते हुए अपने ही पूर्व निर्णय को पलटते हुए सजा को धारा 304 भाग-II (ग़ैर-इरादतन हत्या) में परिवर्तित कर दिया और सजा को घटाकर एक आरोपी को 10 वर्ष और अन्य दो को 5-5 वर्ष कर दिया।
शिकायतकर्ता की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा अंतिम निर्णय में इस प्रकार का संशोधन किए जाने को “कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं” करार दिया।

पीठ ने कहा, “हाईकोर्ट द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पूरी तरह से असंवैधानिक और विधि के विपरीत थी।” कोर्ट ने यह भी दोहराया कि जब किसी फैसले में कोई लिपिकीय त्रुटि नहीं थी, तो हाईकोर्ट को उसे पुनः खोलने और संशोधित करने का कोई अधिकार नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का 2019 का आदेश रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई हत्या की सजा को बहाल कर दिया। साथ ही, आरोपियों को आदेश दिया गया कि वे चार सप्ताह के भीतर जौनपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आत्मसमर्पण करें और शेष सजा पूरी करें।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि दोषियों को 2018 के फैसले के खिलाफ अपील करने का अधिकार सुरक्षित रहेगा।