भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया है, जिसमें कथित रूप से जालसाजी और रंगदारी के एक मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सौंपने का निर्देश दिया गया था।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने स्पष्ट किया कि उच्च न्यायालयों को बिना ठोस प्रारंभिक साक्ष्य के सीबीआई जांच का निर्देश नहीं देना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यह एजेंसी केवल उन्हीं मामलों में लगाई जानी चाहिए जहां प्रारंभिक रूप से कोई गंभीर सामग्री सामने आती है जो केंद्रीय जांच की मांग करती हो।
मामला पंचकूला स्थित एक फार्मास्युटिकल कारोबारी से जुड़ा है, जिसने आरोप लगाया था कि एक व्यक्ति ने खुद को इंटेलिजेंस ब्यूरो का इंस्पेक्टर जनरल बताकर धमकाया और ₹1.49 करोड़ रुपये की रंगदारी वसूली। शिकायतकर्ता ने यह भी दावा किया था कि राज्य पुलिस और आरोपी के बीच जान-पहचान होने के कारण निष्पक्ष जांच संभव नहीं है, इसलिए जांच सीबीआई को सौंपी जाए।

हाईकोर्ट ने इस दलील को स्वीकार करते हुए सीबीआई जांच का आदेश दिया था, जिसे आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि आरोप “अनिश्चित और अस्पष्ट” हैं और सीबीआई जांच के लिए आवश्यक न्यूनतम प्रमाण भी नहीं दर्शाते।
न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “हाईकोर्ट को सीबीआई जांच का आदेश केवल तब देना चाहिए जब प्रारंभिक सामग्री इस स्तर की हो कि वह सीबीआई जांच की मांग करे। केवल कुछ अस्पष्ट आरोपों के आधार पर ऐसा नहीं किया जाना चाहिए।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि केवल संदेह या अस्थिरता के आधार पर सीबीआई जैसी शीर्ष जांच एजेंसी को सक्रिय करना उचित नहीं है।
2 अप्रैल को दिए गए इस फैसले में पीठ ने यह भी उल्लेख किया कि स्थानीय पुलिस पहले ही एक विशेष जांच दल (SIT) गठित कर चुकी है, जिसकी अध्यक्षता एक सहायक पुलिस आयुक्त कर रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि स्थानीय स्तर पर मामले को गंभीरता से लिया जा रहा है।