सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उस राष्ट्रपति संदर्भ पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है, जिसमें यह सवाल उठाया गया था कि क्या संवैधानिक अदालतें राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए समयसीमा तय कर सकती हैं।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ,न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर शामिल हैं, ने 19 अगस्त से चली दस दिवसीय सुनवाई पूरी करने के बाद फैसला सुरक्षित रखा।
सुनवाई का समापन तब हुआ जब भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने अपनी दलीलें पूरी कीं। वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र का पक्ष रखते हुए विपक्ष शासित राज्यों—तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश—की दलीलों का विरोध किया।
यह संदर्भ तब आया जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई 2025 में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। यह कदम सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के उस फैसले के बाद उठाया गया था, जिसमें तमिलनाडु विधानसभा से पारित विधेयकों पर राज्यपाल की भूमिका और लंबी देरी पर टिप्पणी की गई थी।
राष्ट्रपति ने अपने पांच पन्नों के संदर्भ में 14 प्रश्न पूछे और यह स्पष्ट करने को कहा कि राज्य विधानमंडलों से पारित विधेयकों पर विचार करते समय राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 200 और 201 के तहत कितनी विवेकाधीन शक्ति है और क्या अदालतें इस प्रक्रिया के लिए बाध्यकारी समयसीमा तय कर सकती हैं।
केंद्र ने कहा कि न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा तय करना कार्यपालिका की संवैधानिक शक्तियों में हस्तक्षेप होगा। दूसरी ओर, राज्यों का तर्क था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति की ओर से लंबे समय तक कार्रवाई न करना विधायी प्रक्रिया को कमजोर करता है और संवैधानिक गतिरोध पैदा करता है।
मुख्य न्यायाधीश गवई ने सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि यह सवाल “संघीय ढांचे के मूल” से जुड़ा है और इसका असर कार्यपालिका और विधायिका के बीच संबंधों पर दूरगामी होगा।
अब जबकि दलीलें पूरी हो चुकी हैं, संविधान पीठ जल्द ही अपना निर्णय सुनाएगी। यह फैसला राज्यपालों और राष्ट्रपति की भूमिका तथा केंद्र-राज्य संबंधों में शक्तियों के संतुलन को लेकर अहम संवैधानिक स्पष्टता प्रदान करेगा।




