सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को स्पष्ट किया कि नाबालिगों से सामूहिक दुष्कर्म के मामलों में उम्रकैद (प्राकृतिक जीवन के शेष काल तक) की सज़ा पाने वाले दोषियों को दया लाभ (remission) का अधिकार प्राप्त है। अदालत ने कहा कि यह न केवल संवैधानिक अधिकार है बल्कि वैधानिक अधिकार भी है।
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ धारा 376डीए (IPC, अब निरस्त) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। यह धारा 16 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म के लिए सज़ा का प्रावधान करती है।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इस धारा में प्रयुक्त शब्द “shall” का अर्थ है कि सत्र न्यायालय के पास कोई विकल्प नहीं है और उसे केवल आजीवन कारावास (प्राकृतिक जीवन भर) ही देना होगा, जिससे दोषी के पक्ष में किसी भी नरमी या परिस्थिति पर विचार संभव नहीं है।

पीठ ने कहा कि सत्र न्यायालय द्वारा दी गई यह सज़ा हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती योग्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भले ही धारा 376डीए या 376डीबी (12 वर्ष से कम आयु की लड़की से सामूहिक दुष्कर्म) के तहत प्राकृतिक जीवनभर की सज़ा दी गई हो, फिर भी दोषी को दया लाभ मांगने का अधिकार है।
“दया लाभ मांगने का अधिकार केवल संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 के तहत ही नहीं बल्कि वैधानिक रूप से भी उपलब्ध है। प्रत्येक राज्य की अपनी दया नीति होती है, जो धारा 376डीए या 376डीबी के मामलों में भी लागू होती है,” पीठ ने कहा।
संविधान का अनुच्छेद 72 राष्ट्रपति को और अनुच्छेद 161 राज्यपाल को दया याचिका पर निर्णय लेने का अधिकार देता है।
हालाँकि, अदालत ने यह बड़ा सवाल खुला छोड़ दिया कि धारा 376डीए में केवल एक ही प्रकार की सज़ा का प्रावधान संवैधानिक है या नहीं। पीठ ने याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि इस मुद्दे को किसी उपयुक्त मामले में उठाया जा सकता है।
केंद्र सरकार ने इस धारा की संवैधानिक वैधता का समर्थन किया।