सुप्रीम कोर्ट ने मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 163A के तहत वाहन मालिक की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारियों द्वारा मुआवज़ा प्राप्त करने के अधिकार से जुड़ी कानूनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए मामला बड़ी पीठ को भेज दिया है। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने दो जजों की अलग-अलग पीठों के निर्णयों पर असहमति जताते हुए यह मामला मुख्य न्यायाधीश को भेजने का निर्देश दिया।
यह मामला एक सड़क दुर्घटना से जुड़ा है, जिसमें याचिकाकर्ता वाकिया आफरीन (माइनर) के माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। वाहन का टायर फटने से वाहन अनियंत्रित होकर सड़क किनारे इमारत से टकरा गया, जिससे वाहन में सवार चार लोगों की मौत हो गई। याचिकाकर्ता उस समय मात्र दो वर्ष की थी और उसकी ओर से उसकी मौसी ने मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT), कटक के समक्ष दावा दायर किया।
अधिकरण ने माँ की मृत्यु पर ₹4,08,000 और पिता की मृत्यु पर ₹4,53,339 का मुआवज़ा मंज़ूर किया था। पिता ही वाहन के मालिक थे और MACT तथा हाईकोर्ट के समक्ष उन्हें मृत बताया गया था। बीमा कंपनी, नेशनल इंश्योरेंस को प्रतिवादी बनाया गया था।

हालांकि, ओडिशा हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दावा खारिज कर दिया था कि मृत व्यक्ति को प्रतिवादी नहीं बनाया जा सकता, इसलिए याचिकाएं विचारणीय नहीं हैं। लेकिन हाईकोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि बीमा पॉलिसी वैध थी और वाहन चालक के पास वैध लाइसेंस था।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस दलील को गलत बताया। कोर्ट ने मोटर वाहन अधिनियम की धारा 155 का हवाला देते हुए कहा कि, “यदि दुर्घटना के बाद बीमाधारक की मृत्यु हो जाती है, तो यह बीमा कंपनी के खिलाफ दावे को रोकने का आधार नहीं हो सकता।”
मुख्य प्रश्न यह था कि क्या वाहन मालिक की मृत्यु पर उसका उत्तराधिकारी, जो उसके संपत्ति का वारिस भी है, धारा 163A के तहत बीमा कंपनी से मुआवज़ा मांग सकता है। बीमा कंपनी ने तर्क दिया कि चूंकि याचिकाकर्ता ने मालिक की संपत्ति प्राप्त की है, वह एक ही समय में उत्तराधिकारी और मुआवज़ा प्राप्तकर्ता नहीं हो सकती।
कोर्ट ने माँ की मृत्यु पर दिए गए मुआवज़े को सही ठहराते हुए उसे पुनर्स्थापित किया, लेकिन पिता की मृत्यु को लेकर बीमा कंपनी की देनदारी पर विस्तृत विचार किया। कोर्ट ने माना कि बीमा पॉलिसी के अनुसार मालिक-चालक के लिए ₹2 लाख की सीमा निर्धारित है।
इस संदर्भ में कोर्ट ने विभिन्न मामलों पर विचार किया, जिनमें शामिल थे:
- धनराज बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस (2004) 8 SCC 553
- ओरिएंटल इंश्योरेंस बनाम झूमा साहा (2007) 9 SCC 263
- ओरिएंटल इंश्योरेंस बनाम रजनी देवी (2008) 5 SCC 736
- निंगम्मा बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस (2009) 13 SCC 710
- रामखिलाड़ी बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस (2020) 2 SCC 550
इन फैसलों में यह कहा गया था कि मालिक स्वयं या उसके उत्तराधिकारी धारा 163A के तहत मुआवज़ा पाने के पात्र नहीं हैं क्योंकि वे “थर्ड पार्टी” नहीं हैं। लेकिन वर्तमान पीठ ने इस सिद्धांत पर असहमति जताई।
धारा 163A की व्याख्या करते हुए कोर्ट ने कहा:
“धारा 163A एक विशेष प्रावधान है, जो मोटर वाहन अधिनियम, अन्य प्रभावी विधियों और वैध दस्तावेज़ों पर भी प्रधानता रखता है… यह धारा 147 और 149 सहित अधिनियम की अन्य धाराओं और बीमा पॉलिसी की शर्तों को भी ओवरराइड करती है, जो मालिक-चालक के लिए दावा राशि सीमित करती हैं।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह धारा एक सामाजिक सुरक्षा का कदम है, जो ‘नो फॉल्ट लायबिलिटी’ के आधार पर संरचित फार्मूले से मुआवज़ा प्रदान करती है।
अंत में कोर्ट ने कहा:
“हमारा मत है कि धारा 163A के तहत बीमा कंपनी की देनदारी, जब दावेदार स्वयं वाहन मालिक का उत्तराधिकारी हो, इस मुद्दे पर स्पष्ट और प्राधिकृत निर्णय की आवश्यकता है।”
कोर्ट ने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाए ताकि उचित पीठ का गठन किया जा सके।