सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक नौकरियों में निष्पक्षता, पारदर्शिता और संवैधानिक नियमों के पालन की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की मनमानी करना समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
सोमवार को जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने झारखंड हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें पलामू जिला प्रशासन द्वारा 29 जुलाई 2010 को जारी किए गए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भर्ती के विज्ञापन को पारदर्शिता की कमी के कारण अमान्य घोषित किया गया था।
अदालत ने कहा कि भले ही किसी व्यक्ति को सार्वजनिक पद पर नियुक्ति का मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य मनमानी या अनियमित तरीकों से काम करे और निष्पक्ष चयन प्रक्रिया को प्रभावित करे।
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खंडपीठ ने कहा, “सार्वजनिक रोजगार में मनमानी करना समानता के मौलिक अधिकार की जड़ पर चोट करता है। राज्य को संविधान द्वारा निर्धारित निष्पक्षता की सीमाओं में ही कार्य करना चाहिए।”
2010 के विवादित विज्ञापन में उपलब्ध पदों की संख्या का उल्लेख नहीं किया गया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पारदर्शिता की कमी के कारण “अवैध और अमान्य” करार दिया। अदालत ने कहा कि सार्वजनिक रोजगार के लिए वैध विज्ञापन में कुल पदों की संख्या, आरक्षित और गैर-आरक्षित सीटों का बंटवारा, न्यूनतम योग्यता और चयन प्रक्रिया (लिखित परीक्षा, मौखिक परीक्षा या साक्षात्कार) का स्पष्ट विवरण अनिवार्य है।
इसके अतिरिक्त, शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि राज्य आरक्षण नहीं देने का निर्णय लेता है, तो इसे पर्याप्त प्रतिनिधित्व से संबंधित आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए और इस बात को विज्ञापन में स्पष्ट रूप से उल्लेखित करना अनिवार्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस फैसले को भी सही ठहराया, जिसमें उन कर्मचारियों की अपील खारिज कर दी गई थी जो गलत प्रक्रिया से नियुक्त हुए थे और बाद में राज्य सरकार द्वारा बर्खास्त कर दिए गए थे। खंडपीठ ने कहा कि गलत प्रक्रिया का लाभ उठाने वालों को बाद में उचित व्यवहार की मांग करने का अधिकार नहीं है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सार्वजनिक रोजगार प्रक्रिया हमेशा निष्पक्ष, पारदर्शी और संविधान के अनुरूप होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 14 के तहत प्राप्त निष्पक्ष और समान व्यवहार के अधिकार की रक्षा की जा सके।