भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि अग्रिम जमानत (pre-arrest bail) देने के लिए यह शर्त रखना कि आरोपी अपनी पत्नी के साथ वैवाहिक जीवन फिर से शुरू करे, कानूनन उचित नहीं है। न्यायालय ने झारखंड हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें ऐसी शर्त लगाई गई थी, और मामले को गुण-दोष के आधार पर दोबारा विचार के लिए हाईकोर्ट को भेज दिया।
यह फैसला 29 जुलाई 2025 को न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मासिह की पीठ ने अनिल कुमार बनाम राज्य झारखंड व अन्य मामले में सुनाया।
मामले का सारांश
सुप्रीम कोर्ट झारखंड हाईकोर्ट, रांची के 25 फरवरी 2025 के आदेश के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था। हाईकोर्ट ने अनिल कुमार को अग्रिम जमानत इस शर्त पर दी थी कि वह अपनी पत्नी (उत्तरदायी संख्या 2) के साथ वैवाहिक जीवन पुनः आरंभ करें और “उसे गरिमा और सम्मान के साथ अपनी विधिक पत्नी के रूप में रखें।” सुप्रीम कोर्ट ने इस शर्त को अस्वीकार करते हुए कहा कि जमानत याचिका का निर्णय केवल कानून में निर्धारित मानदंडों के आधार पर किया जाना चाहिए और शर्तें केवल धारा 438(2) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अंतर्गत ही लगाई जा सकती हैं।

पृष्ठभूमि
अनिल कुमार के खिलाफ रांची महिला थाना कांड संख्या 11/2024 में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A, 323, 313, 506, 307, 34 तथा दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत आरोप लगाए गए थे। उन्होंने अग्रिम जमानत के लिए झारखंड हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसे कुछ शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया गया। मुख्य शर्त यह थी कि वे अपनी पत्नी के साथ दोबारा वैवाहिक जीवन शुरू करें। इस शर्त से असहमत होकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दाखिल की।
सुप्रीम कोर्ट में दलीलें
उत्तरदायी संख्या 2 (पत्नी) की ओर से कहा गया कि याचिकाकर्ता ने स्वयं हाईकोर्ट में वैवाहिक जीवन फिर से शुरू करने की सहमति दी थी, इसलिए वह अब इस शर्त को चुनौती नहीं दे सकते।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि अग्रिम जमानत याचिका की सुनवाई में यह देखना होता है कि क्या याचिकाकर्ता को विवेकाधीन राहत दिए जाने की परिस्थितियाँ मौजूद हैं। न्यायालय ने कहा:
“जब याचिकाकर्ता की अग्रिम जमानत याचिका पर विचार किया जा रहा था, तब यह आकलन करना आवश्यक था कि क्या उसे जमानत दी जानी चाहिए; यदि हां, तो केवल वे शर्तें लगाई जानी चाहिए जो धारा 438(2), दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 से संबंधित हों। लेकिन इस मामले में जो शर्त लगाई गई, वह नहीं लगाई जानी चाहिए थी।”
न्यायालय ने महेश चंद्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [(2006) 6 SCC 196] और मुनिश भसीन बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) [(2009) 4 SCC 45] में दिए गए पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए इस सिद्धांत को दोहराया।
पत्नी की दलील के संदर्भ में न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि याचिकाकर्ता ने सहमति व्यक्त की थी, लेकिन यह भी जोड़ा कि:
“प्रतिवादी संख्या 2 की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ता इस हद तक सही हैं कि याचिकाकर्ता ने वैवाहिक जीवन पुनः प्रारंभ करने पर सहमति व्यक्त की थी। तथापि, यह रिकॉर्ड पर उपलब्ध है कि प्रतिवादी संख्या 2 ने एक अतिरिक्त शर्त लगाने का आग्रह किया था, जिसके संबंध में याचिकाकर्ता की स्पष्ट सहमति नहीं थी।”
न्यायालय ने आगे कहा:
“ऐसी शर्त लगाना कि याचिकाकर्ता उत्तरदायी संख्या 2 को गरिमा और सम्मान के साथ रखेगा, अपने आप में विवाद की संभावना को जन्म देती है। भविष्य में यह कहा जा सकता है कि शर्त का पालन नहीं हुआ, जिससे जमानत रद्द करने का आवेदन आ सकता है। ऐसे में हाईकोर्ट तथ्यात्मक विवादों से जूझ सकता है, जो अग्रिम जमानत याचिका में उपयुक्त नहीं है।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए निम्नलिखित आदेश दिए:
- झारखंड हाईकोर्ट का दिनांक 25 फरवरी 2025 का आदेश रद्द किया गया।
- अग्रिम जमानत याचिका संख्या 4200/2024 को हाईकोर्ट में पुनः सुनवाई हेतु बहाल किया गया।
- हाईकोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह याचिका का “स्वतंत्र रूप से अपने गुण-दोष के आधार पर यथाशीघ्र” निपटारा करे।
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा 3 अप्रैल 2025 को दी गई गिरफ्तारी से अंतरिम सुरक्षा तब तक जारी रहेगी जब तक हाईकोर्ट अंतिम आदेश पारित नहीं करता।