सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्राप्त अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत दर्ज अपराध का संयोजन कर आरोपी राजेन्द्र अनंत वारिक को बरी कर दिया है। न्यायालय ने यह उल्लेख किया कि आरोपी द्वारा ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित पूरी चेक राशि और अतिरिक्त मुआवज़ा पहले ही चुका दिया गया है। साथ ही यह भी कहा गया कि हाईकोर्ट ने गोवा मनी-लेंडर्स एक्ट, 2001 के तहत उपलब्ध वैधानिक प्रतिरक्षा पर विचार नहीं किया, जिससे प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा दिया गया बरी किए जाने का आदेश उलट गया था।
पृष्ठभूमि:
यह मामला न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, कानाकोना के समक्ष दायर क्रिमिनल केस संख्या 29/एनआई/2014 से उत्पन्न हुआ था, जिसमें राजेन्द्र अनंत वारिक को शिकायतकर्ता गोविंद बी. प्रभुगांवकर को दिए गए चेक के बाउंस होने पर दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने 5 अगस्त 2016 को आरोपी को ₹2,00,000 की चेक राशि और ₹30,000 मुआवज़ा अदा करने का आदेश दिया था, साथ ही अदायगी न होने की स्थिति में तीन महीने की साधारण कारावास और न्यायालय के उठने तक हिरासत में रहने का निर्देश भी दिया था।
इस सज़ा को दक्षिण गोवा, मडगांव स्थित सेशन्स कोर्ट (प्रथम अपीलीय न्यायालय) ने 6 फरवरी 2017 को क्रिमिनल अपील संख्या 72/2016 में निरस्त कर दिया। कोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता बिना लाइसेंस के गोवा मनी-लेंडर्स एक्ट, 2001 का उल्लंघन करते हुए धन उधार देने का कार्य कर रहा था, जिससे वह एनआई एक्ट के अंतर्गत अभियोजन करने का पात्र नहीं था।

हालाँकि, शिकायतकर्ता की अपील पर बॉम्बे हाईकोर्ट की गोवा पीठ ने 7 जनवरी 2023 को क्रिमिनल अपील संख्या 53/2017 में ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए दोषसिद्धि के आदेश को पुनर्स्थापित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में पक्षकारों की दलीलें:
अपीलकर्ता की ओर से प्रस्तुत वकील ने तर्क दिया कि—
- ऋण की पूरी राशि जनवरी 2012 से जुलाई 2013 के बीच चुका दी गई थी।
- ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित ₹2,00,000 (चेक राशि) और ₹30,000 (मुआवज़ा) की राशि भी आरोपी चुका चुका है।
- ऐसी स्थिति में मामला संयोजित (compounded) माना जाना चाहिए।
- हाईकोर्ट ने गोवा मनी-लेंडर्स एक्ट की प्रासंगिकता पर विचार नहीं किया, जिससे आरोपी को उपलब्ध एक वैधानिक बचाव की अनदेखी हुई।
सर्वोच्च न्यायालय में शिकायतकर्ता की ओर से, नोटिस प्राप्त होने के बावजूद, कोई पक्षपक्षी उपस्थित नहीं हुआ।
न्यायालय का विश्लेषण:
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के निर्णय पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा:
“हम पाते हैं कि हाईकोर्ट ने आरोपी को बरी किए जाने के आदेश को पलटते समय गोवा अधिनियम की प्रासंगिकता, जो आरोपी-अपीलकर्ता के पक्ष में एक वैधानिक बचाव था, पर ध्यान नहीं दिया।”
कोर्ट ने यह भी दर्ज किया कि:
“यह निर्विवाद है कि ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित ₹2,00,000 (चेक राशि) और ₹30,000 (मुआवज़ा) की पूरी राशि आरोपी-अपीलकर्ता द्वारा अदा की जा चुकी है।”
अनुच्छेद 142 का प्रयोग और अंतिम आदेश:
पूरी राशि अदा किए जाने और न्यायिक संतुलन के हित में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“हम संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, इस अपराध का संयोजन करते हैं और आरोपी-अपीलकर्ता को एनआई एक्ट की धारा 138 के आरोप से बरी करते हैं।”
बरी किए जाने की यह अनुमति इस शर्त पर दी गई कि ₹2,30,000 की संपूर्ण राशि शिकायतकर्ता को अदा कर दी गई हो या कर दी जाएगी।
अतः अपील को स्वीकार कर लिया गया और लंबित सभी आवेदनों का निपटारा कर दिया गया।