सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को हत्या और साक्ष्य मिटाने के आरोपों से बरी करते हुए कहा कि अभियोजन द्वारा केवल “एक साथ अंतिम बार देखे जाने” (last seen together) के सिद्धांत पर आधारित मामला दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्र की पीठ ने निचली अदालत और ओडिशा उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए यह निर्णय सुनाया।
मामला पृष्ठभूमि
4 अप्रैल 2016 को आकश गराड़िया अपने दो साथियों (PW-1 और PW-2) और आरोपी के साथ नदी में स्नान के लिए गया था। बाद में, आरोपी और मृतक काजू बाग की ओर गए और मृतक लौटकर नहीं आया। अगली सुबह उसका शव नदी में मिला। मृतक के पिता (PW-3) ने आरोपी के खिलाफ हत्या की प्राथमिकी दर्ज कराई।
अभियोजन ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 201 के तहत मामला दर्ज किया। जांच के बाद आरोप पत्र दायर हुआ और ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया, जिसे उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि पूरा मामला केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है और इसमें दोष सिद्ध करने की पूरी श्रृंखला नहीं बनती। एफआईआर में 20 घंटे की देरी, शव मिलने के स्थान को लेकर विरोधाभास, और रासायनिक परीक्षण की अपूर्णता को भी रेखांकित किया गया। कोई स्पष्ट उद्देश्य (motive) नहीं था, न ही आरोपी से कोई कबूलनामा या बरामदगी हुई।
राज्य पक्ष का तर्क था कि मृतक को अंतिम बार आरोपी के साथ देखा गया और शव के पास खून लगे पत्थर की बरामदगी अभियोजन पक्ष के तर्क को बल देती है।
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायालय ने दोहराया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के मामलों में प्रत्येक परिस्थिति को इस प्रकार स्थापित करना आवश्यक है कि वे मिलकर एक संपूर्ण श्रृंखला बनाएं जो केवल अभियुक्त की दोषिता की ओर इंगित करे।
न्यायालय ने कन्हैया लाल बनाम राजस्थान राज्य (2014) 4 SCC 715 का हवाला देते हुए कहा:
“‘एक साथ अंतिम बार देखे जाने’ का सिद्धांत अपने आप में कमजोर साक्ष्य होता है और केवल इसी आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती जब तक अन्य पुष्टिकारक साक्ष्य उपलब्ध न हों।”
कोर्ट ने यह भी देखा कि आरोपी ने न तो अपराध स्वीकार किया, न ही उसकी निशानदेही पर कोई बरामदगी हुई। शव के पास मिला पत्थर उसकी जानकारी से बरामद नहीं हुआ और खून का समूह परीक्षण भी नहीं किया गया।
प्रस्तावित उद्देश्य (motive) — आरोपी की पत्नी और सहग्रामवासी के बीच कथित संबंधों को लेकर संदेह — अदालत ने खारिज कर दिया क्योंकि यह केवल अदालत में पहली बार सामने आया और प्राथमिक गवाहों ने इस पर कुछ नहीं कहा।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि संदेह, चाहे जितना भी प्रबल हो, वह प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता। इस संदर्भ में न्यायालय ने सुजीत बिस्वास बनाम असम राज्य (AIR 2013 SC 3817) का उल्लेख करते हुए कहा:
“संशय, चाहे जितना भी गहरा हो, वह प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता। आपराधिक मुकदमे में दोषसिद्धि केवल संदेह के आधार पर नहीं की जा सकती।”
अंततः न्यायालय ने कहा:
“यह मामला ऐसा है जहाँ अभियुक्त के विरुद्ध ‘अंतिम बार साथ देखे जाने’ के अतिरिक्त कोई अन्य सशक्त आपत्तिजनक साक्ष्य नहीं है।”
और:
“उपलब्ध परिस्थितिजन्य साक्ष्य संदेह अवश्य उत्पन्न करते हैं, परंतु इतने निर्णायक नहीं हैं कि केवल ‘एक साथ अंतिम बार देखे जाने’ के आधार पर दोषसिद्धि की जा सके।”
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया और निर्देश दिया कि यदि आरोपी किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है तो उसे रिहा किया जाए।