सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने बुधवार को न्यायपालिका में लंबित मामलों की भारी संख्या और आम जनता की अपेक्षाओं को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) द्वारा संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि देशभर की जिला अदालतों में 4.50 करोड़ से अधिक मामले अब भी लंबित हैं।
कार्यक्रम में जस्टिस ओका ने कहा कि उन्हें इस आम धारणा पर संदेह है कि आम आदमी न्यायपालिका पर अटूट विश्वास रखता है। उन्होंने कहा कि अगर हमें अपने न्याय प्रणाली में सुधार करना है तो पहले इसकी कमियों को स्वीकार करना जरूरी है। “जब तक हमारी अदालतें गुणवत्तापूर्ण और त्वरित न्याय नहीं देंगी, तब तक संविधान द्वारा नागरिकों को दिया गया सामाजिक और आर्थिक न्याय का वादा पूरा नहीं किया जा सकता,” उन्होंने कहा।
इस अवसर को जहाँ एक उत्सव के रूप में आयोजित किया गया था, वह जस्टिस ओका के विचारोत्तेजक संबोधन के बाद कानूनी बिरादरी के लिए आत्ममंथन का विषय बन गया। उन्होंने सवाल उठाया, “इतनी भारी संख्या में मामलों के लंबित रहने के बावजूद, क्या हम गंभीरता से कह सकते हैं कि हमने आम आदमी की अपेक्षाओं को पूरा किया है?”

उन्होंने खासतौर पर जिला अदालतों पर ध्यान देने की बात कही, जिन्हें उन्होंने “आम आदमी की अदालतें” बताया। उन्होंने कहा कि देश में जब भी न्यायपालिका की चर्चा होती है, तो अक्सर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट केंद्र में होते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि अधिकांश नागरिक जिला अदालतों में ही न्याय की आशा लेकर आते हैं।
जस्टिस ओका ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि न्यायपालिका के भीतर से ही बार-बार यह दावा किया जाता है कि जनता का अदालतों पर विश्वास है। उन्होंने कहा, “हमें ऐसा कहने का कोई अधिकार नहीं है। यह जनता और वादकारियों को कहना चाहिए, न कि हमें।”
उन्होंने आलोचनाओं को सकारात्मक रूप में लेने की सलाह दी और कहा कि यह समय है कि न्याय व्यवस्था में आवश्यक सुधार किए जाएं। उन्होंने बढ़ते वैवाहिक विवादों, मामलों के निपटारे में देरी, जमानत में विलंब और कानूनी सहायता तथा लोक अभियोजकों की प्रभावशीलता जैसे मुद्दों पर भी चिंता जताई।
जस्टिस ओका की यह टिप्पणी न्यायपालिका की आत्मचिंतन की आवश्यकता को रेखांकित करती है, ताकि संविधान द्वारा दिए गए न्याय के वादे को साकार किया जा सके।