उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कम नामांकन वाले 100 से अधिक सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के विलय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि इस फैसले से हजारों बच्चों की शिक्षा बाधित होगी और उन्हें अपने नजदीकी स्कूल छोड़कर दूर के स्कूलों में पढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने सोमवार को याचिका को अगले सप्ताह सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने पर सहमति जताई। यह आदेश उस समय दिया गया जब याचिकाकर्ता तैय्यब खान सलमानी की ओर से पेश अधिवक्ता प्रदीप यादव ने मामले की तत्काल सुनवाई की मांग की।
याचिका में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश शासन के बेसिक शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव ने 16 जून को आदेश जारी किया, जिसमें बेसिक शिक्षा अधिकारियों के नियंत्रण में संचालित और राज्य सरकार के स्वामित्व वाले स्कूलों का “पेयरिंग” यानी विलय करने के निर्देश दिए गए। इसके तहत 24 जून, 2025 को 105 स्कूलों की सूची जारी की गई, जिन्हें एकीकृत किया जाना है।

प्रदीप यादव ने तर्क दिया कि इस आदेश से हजारों छात्रों को उनके स्थानीय विद्यालयों से वंचित होना पड़ेगा और उन्हें दूर-दराज के स्कूलों में जाना पड़ेगा, जिससे शिक्षा तक उनकी पहुंच पर असर पड़ेगा। उन्होंने यह भी बताया कि इस फैसले के खिलाफ दाखिल याचिकाएं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 7 जुलाई को खारिज कर दी थीं, बिना मामले की गंभीरता को पूरी तरह समझे।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि भले ही यह एक नीतिगत निर्णय प्रतीत होता है, लेकिन अगर सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है तो अदालत इस मुद्दे की समीक्षा करने को तैयार है।
याचिका में दलील दी गई है कि यह नीति संविधान के अनुच्छेद 21क का उल्लंघन करती है, जो बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। साथ ही, यह शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाए गए नियमों का भी उल्लंघन है। याचिका में विशेष रूप से नियम 4(1)(क) का उल्लेख किया गया है, जिसके अनुसार 300 या उससे अधिक जनसंख्या वाले ऐसे बसावट क्षेत्र में, जहां एक किलोमीटर के दायरे में कोई स्कूल नहीं है, वहां प्राथमिक विद्यालय की स्थापना अनिवार्य है।
याचिकाकर्ता ने इस फैसले को “मनमाना, अविवेकपूर्ण और असंवैधानिक” बताया है और सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की मांग की है।
सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई अगले सप्ताह करेगा।