सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में उत्तर प्रदेश के एक ड्रग्स मामले में आरोपी को जमानत प्रदान करते हुए कहा कि बिना मुकदमे की शुरुआत के लंबे समय तक कैद को सज़ा के रूप में नहीं देखा जा सकता। न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए यह स्पष्ट किया कि मुकदमे की प्रक्रिया शुरू न होने के बावजूद आरोपी को वर्षों तक कैद में रखना न्यायसंगत नहीं है।
यह मामला जनवरी 2019 में दर्ज हुआ था और आरोपी को नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज़ (NDPS) अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया था। गिरफ्तारी के पांच वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बावजूद मुकदमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई थी, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई।
इससे पहले, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मार्च 2024 में आरोपी की जमानत याचिका को खारिज कर दिया था। उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। शीर्ष अदालत ने कहा, “बिना मुकदमा शुरू हुए लंबे समय तक की गई कैद को सज़ा में बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती।”

राज्य सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि एक सह-आरोपी, जिसे पहले जमानत दी गई थी, अदालत में पेश नहीं हो रहा है, इसलिए मुख्य आरोपी को भी राहत नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि किसी सह-आरोपी की गैर-हाज़िरी के कारण किसी अन्य आरोपी को दंडित नहीं किया जा सकता। राज्य सरकार सह-आरोपी की जमानत रद्द करवाने की प्रक्रिया अपना सकती है।
अदालत ने ट्रायल कोर्ट द्वारा तय की गई शर्तों के अधीन आरोपी को जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया। यह फैसला आरोपी के अधिकारों और न्यायिक प्रक्रिया में देरी के विरुद्ध न्यायपालिका की संवेदनशीलता को दर्शाता है। कोर्ट ने यह भी माना कि जब अन्य सभी सह-आरोपियों को पहले ही जमानत दी जा चुकी है, तो समानता के सिद्धांत के तहत याची को भी राहत मिलनी चाहिए।
