सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को चुनाव आयोग (ECI) से यह स्पष्ट करने को कहा कि 2003 में बिहार में हुए गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण के दौरान किन दस्तावेजों को आधार बनाया गया था। अदालत आयोग के 24 जून को राज्य में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) कराने के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह सवाल तब उठाया जब याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता निज़ाम पाशा ने 1 जनवरी 2003 को मानक तिथि के रूप में अपनाने के कानूनी आधार पर सवाल उठाया। पाशा ने कहा कि इस तिथि को चुनने का कोई ठोस कारण रिकॉर्ड पर नहीं है और यह धारणा गलत है कि 2003 के गहन पुनरीक्षण में जारी मतदाता पहचान पत्र, समय-समय पर हुए संक्षिप्त पुनरीक्षणों में जारी कार्डों से अधिक विश्वसनीय हैं।
पाशा ने तर्क दिया कि यदि गहन और संक्षिप्त पुनरीक्षण दोनों की नामांकन प्रक्रिया समान है, तो संक्षिप्त पुनरीक्षण में जारी EPIC कार्ड को कम मान्यता देने का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि बूथ स्तर अधिकारियों द्वारा नामांकन प्रपत्र जमा करने की रसीद नहीं दी जा रही, जिससे उन्हें आवेदन स्वीकार या अस्वीकार करने का अत्यधिक विवेकाधिकार मिल जाता है।

वरिष्ठ अधिवक्ता शुएब आलम ने भी याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी कि आयोग की अधिसूचना में वर्णित प्रक्रिया न तो वास्तव में “गहन” है और न “संक्षिप्त”, बल्कि यह खुद अधिसूचना की उपज है। उन्होंने कहा, “यह मतदाता पंजीकरण की प्रक्रिया है, अयोग्यता की नहीं। इसे स्वागत करने की प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि अस्वीकार करने की।”
पीठ ने 13 अगस्त को यह टिप्पणी की थी कि मतदाता सूची “स्थिर” नहीं रह सकती और आयोग के पास ऐसे कदम उठाने के शेषाधिकार मौजूद हैं। अदालत ने यह भी नोट किया कि बिहार के SIR में स्वीकार्य पहचान दस्तावेजों की सूची सात से बढ़ाकर ग्यारह करना प्रक्रिया को “मतदाता अनुकूल” बनाता है, न कि अपवर्जनकारी।
इस पुनरीक्षण को राजद, कांग्रेस सहित विपक्षी नेताओं और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) नामक NGO ने चुनौती दी है, यह कहते हुए कि इसका कोई वैधानिक आधार नहीं है। अदालत इस मामले की आगे की सुनवाई चुनाव आयोग से 2003 में इस्तेमाल दस्तावेजों के बारे में जवाब मिलने के बाद करेगी।