अनुशासनात्मक जांच | यदि जांच रिपोर्ट में प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर भरोसा किया गया है, तो कर्मचारी को उसकी प्रति देना अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अनुशासनात्मक कार्यवाही में निष्पक्षता के एक महत्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट किया है। न्यायालय ने कहा है कि यदि जांच अधिकारी अपनी अंतिम रिपोर्ट में प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर भरोसा करता है, तो संबंधित कर्मचारी को उसकी प्रति उपलब्ध कराना आवश्यक है।

यह सिद्धांत स्पष्ट करते हुए न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने विजय बैंक के पूर्व जोनल हेड की बर्खास्तगी को प्रक्रियात्मक त्रुटियों के आधार पर रद्द कर दिया। इन त्रुटियों में एक अनिवार्य विनियमन का उल्लंघन और केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) की अप्रकाशित सिफारिश पर निर्भरता शामिल थी।

मामले की पृष्ठभूमि

के. प्रभाकर हेगड़े ने 1959 में विजय बैंक (जो अब बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय हो चुकी है) में सेवा ज्वॉइन की थी और बाद में जोनल हेड बने। वर्ष 2001 में उनके खिलाफ अस्थायी ओवरड्राफ्ट की मंजूरी में कथित अनियमितताओं को लेकर Vijaya Bank Officer Employees’ (Discipline and Appeal) Regulations, 1981 के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई।

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जांच अधिकारी ने आरोपों को सिद्ध पाया और 4 जुलाई 2002 को अनुशासनिक प्राधिकारी ने उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया। 27 मार्च 2003 को अपीलीय प्राधिकारी ने भी इस आदेश को बरकरार रखा। हेगड़े की चुनौती को कर्नाटक उच्च न्यायालय के एकल पीठ ने स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में खंडपीठ ने उसे पलट दिया। इसके बाद हेगड़े ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट में पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता हेगड़े ने तर्क दिया कि जांच कई आधारों पर त्रुटिपूर्ण थी, विशेष रूप से प्रारंभिक जांच रिपोर्ट की प्रति न दिए जाने से उन्हें गंभीर नुकसान हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि जांच अधिकारी ने विनियमन 6(17) के अनिवार्य प्रावधान का पालन नहीं किया और सेवानिवृत्ति के बाद की गई बर्खास्तगी अवैध थी।

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बैंक ऑफ बड़ौदा की ओर से कहा गया कि प्रारंभिक जांच रिपोर्ट कोई मौलिक दस्तावेज नहीं था और उसकी प्रति न दिए जाने से कोई नुकसान नहीं हुआ। साथ ही, विनियमन 6(17) को केवल दिशानिर्देशात्मक बताया गया और कहा गया कि उसका पर्याप्त पालन किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

प्रारंभिक जांच रिपोर्ट पर

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि प्रारंभिक जांच का उद्देश्य केवल यह तय करना होता है कि क्या विभागीय कार्यवाही की आवश्यकता है। निर्णय में कहा गया:
“यदि किसी सरकारी सेवक के खिलाफ निष्कर्ष ऐसे दस्तावेज पर आधारित हों, जिसकी प्रति उसे उपलब्ध न कराई गई हो या जिसकी मांग करने पर भी न दी गई हो, तो यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा।”

हालांकि, इस मामले में न्यायालय ने पाया कि जांच अधिकारी ने प्रारंभिक रिपोर्ट पर कोई भरोसा नहीं किया था। इसलिए इस आधार पर जांच को निरस्त करने से इनकार कर दिया गया।

विनियमन 6(17) का अनिवार्य पालन

न्यायालय ने पाया कि जांच अधिकारी ने विनियमन 6(17) के अनिवार्य प्रावधान का पालन नहीं किया। यह प्रावधान कहता है कि यदि आरोपित अधिकारी ने स्वयं को गवाह के रूप में पेश नहीं किया है, तो जांच अधिकारी को प्रतिकूल परिस्थितियों पर उससे प्रश्न करना चाहिए। न्यायालय ने कहा:
“‘may’ और ‘shall’ का एक ही प्रावधान में प्रयोग इस ओर संकेत करता है कि विनियमन 6(17) का दूसरा भाग अनिवार्य है।”

न्यायालय ने माना कि इसका उल्लंघन प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है और अपने आप में गंभीर हानि पहुंचाता है।

CVC की अप्रकाशित सिफारिश पर भरोसा

न्यायालय ने पाया कि अनुशासनिक प्राधिकारी ने पहले अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सजा प्रस्तावित की थी, लेकिन CVC की सिफारिश पर (जो अपीलकर्ता को कभी नहीं दिखाई गई) इसे बढ़ाकर सेवा से बर्खास्तगी कर दी। निर्णय में कहा गया:
“अपीलकर्ता की पीठ पीछे CVC की सिफारिश प्राप्त करना और उसे कम सजा के लिए अवसर न देना, जांच को ही दोषपूर्ण बना देता है। ‘विशेषाधिकार प्राप्त दस्तावेज’ बताना पूर्णत: भ्रमित करने वाला है।”

अंतिम निर्णय और निर्देश

न्यायालय ने माना कि लंबे समय और अपीलकर्ता की उन्नत आयु को देखते हुए मामले को पुनः जांच हेतु भेजना न्यायसंगत नहीं होगा।

इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय का आदेश रद्द करते हुए बर्खास्तगी को निरस्त कर दिया। हालांकि, न्यायालय ने राहत को सीमित करते हुए निर्देश दिया कि:

  • अपीलकर्ता को किसी अन्य सेवा निवृत्ति लाभ का अधिकार नहीं होगा।
  • केवल उतनी एकमुश्त राशि दी जाएगी, जितनी ग्रेच्युटी के रूप में देय होती।
  • यह राशि आठ सप्ताह के भीतर जारी की जाएगी, अन्यथा उस पर 9% वार्षिक ब्याज लगेगा।

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