अपराध के बाद बने कानून के तहत दोषसिद्धि अमान्य: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे कानून के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो अपराध होने के समय लागू ही नहीं था। इसी सिद्धांत के आधार पर, कोर्ट ने एक मृत अदालती कर्मचारी की भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 195-ए के तहत दोषसिद्धि को रद्द कर दिया, क्योंकि यह धारा अपराध होने के कई साल बाद कानून का हिस्सा बनी थी।

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने हालांकि, मृतक कर्मचारी को आपराधिक धमकी देने के लिए आईपीसी की धारा 506-बी के तहत दोषी ठहराने के फैसले को बरकरार रखा।

15 सितंबर, 2025 को दिए गए अपने फैसले में, कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार को कर्मचारी की सेवा समाप्ति के मामले पर “मानवीय दृष्टिकोण” अपनाते हुए पुनर्विचार करने का भी निर्देश दिया, ताकि उसके परिवार को सेवानिवृत्ति लाभ मिल सकें। यह अपील मृतक की पत्नी और बच्चों द्वारा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी।

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मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 1999 की एक दुखद घटना से जुड़ा है, जब एक नाबालिग लड़की ने खुद को आग लगा ली थी और चार दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई थी। लड़की की मां द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी (एफआईआर) के अनुसार, मुन्ना नामक एक सह-अभियुक्त ने उनकी बेटी के साथ छेड़छाड़ की थी। आरोप था कि स्थानीय अदालत में ‘नायब नजीर’ के पद पर तैनात शेख अख्तर, मुन्ना और दो अन्य लोगों के साथ मिलकर, लड़की को मुन्ना के खिलाफ गवाही देने पर “गंभीर परिणाम” भुगतने की धमकी दे रहा था। इन धमकियों से तंग आकर और अपने पिता को बचाने के लिए लड़की ने आत्महत्या कर ली।

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इस मामले में, सत्र न्यायालय ने 28 मार्च, 2007 को शेख अख्तर को आईपीसी की धारा 305 (बच्चे को आत्महत्या के लिए उकसाना) और 506-बी (आपराधिक धमकी) के तहत दोषी ठहराते हुए क्रमशः दस और दो साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।

अख्तर ने इस फैसले को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी। अपील लंबित रहने के दौरान 23 अप्रैल, 2015 को अख्तर का निधन हो गया। इसके बाद, उनकी विधवा जमीला और बच्चों ने अपील को जारी रखा, इस उम्मीद में कि दोषसिद्धि रद्द होने पर उन्हें अख्तर की 30 साल से अधिक की सेवा के सेवानिवृत्ति लाभ मिल सकेंगे।

हाईकोर्ट ने 25 अप्रैल, 2024 के अपने फैसले में अख्तर को धारा 305 के तहत दोषी नहीं माना, लेकिन उसे वैकल्पिक रूप से आईपीसी की धारा 195-ए (झूठे सबूत देने के लिए किसी व्यक्ति को धमकाना) के तहत दोषी ठहराया और धारा 506-बी के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा। इसी आदेश के खिलाफ परिवार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें

अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि गवाहों के बयानों में “गंभीर विरोधाभास” थे। उनकी मुख्य कानूनी चुनौती धारा 195-ए के तहत दोषसिद्धि को लेकर थी। उन्होंने दलील दी कि हाईकोर्ट ने “गंभीर त्रुटि” की है, क्योंकि अपराध 19 फरवरी, 1999 को हुआ था, जबकि धारा 195-ए को 16 अप्रैल, 2006 से आईपीसी में शामिल किया गया था। उन्होंने कहा कि इस धारा के तहत दोषसिद्धि भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) का “स्पष्ट उल्लंघन” है, जो पूर्वव्यापी प्रभाव से आपराधिक कानूनों को लागू करने पर रोक लगाता है।

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वहीं, राज्य सरकार के वकील ने धारा 195-ए के तहत दोषसिद्धि का बचाव करने का कोई प्रयास नहीं किया, लेकिन यह कहा कि धारा 506-बी के तहत दोषसिद्धि का फैसला पूरी तरह से सही था।

न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले गवाहों के बयानों में विरोधाभास की दलील को खारिज कर दिया। बेंच ने कहा, “यह कानून की आवश्यकता नहीं है कि प्राथमिकी में अपराध की घटना से पहले और बाद के सभी तथ्यों का सटीक खुलासा हो।”

धारा 195-ए के तहत दोषसिद्धि के मुद्दे पर, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ताओं के साथ सहमति व्यक्त की। फैसले में कहा गया, “हम अपीलकर्ताओं के वकील से सहमत हैं कि हाईकोर्ट अख्तर को धारा 195-ए आईपीसी के तहत दोषी नहीं ठहरा सकता था।”

इसके बाद बेंच ने धारा 506-बी के तहत दोषसिद्धि की जांच की और रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के आधार पर पाया कि अख्तर उन चार लोगों में से एक था जिन्होंने पीड़िता को धमकाया था। कोर्ट ने कहा, “इसलिए, धारा 506-बी के तहत उसकी दोषसिद्धि में हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं है।”

अंतिम निर्णय और निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 195-ए के तहत दोषसिद्धि “कानून की दृष्टि से अमान्य” है। धारा 305 के तहत बरी होने का फैसला अंतिम हो चुका था क्योंकि राज्य ने इसके खिलाफ अपील नहीं की थी। इस प्रकार, केवल धारा 506-बी के तहत दोषसिद्धि ही बची।

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यह देखते हुए कि परिवार ने यह मुकदमा केवल सेवानिवृत्ति लाभों के लिए लड़ा था, कोर्ट ने एक विशेष निर्देश जारी किया। कोर्ट ने कहा कि अख्तर की सेवा समाप्ति का आधार धारा 305 और 506-बी दोनों के तहत दोषसिद्धि थी। अब जब धारा 305 का गंभीर आरोप रद्द हो गया है, तो कोर्ट ने कहा: “न्याय के हित में यह सबसे अच्छा होगा यदि राज्य सरकार अख्तर की सेवा समाप्ति के मामले पर नए सिरे से विचार करे और यह तय करे कि क्या केवल धारा 506-बी के तहत दोषसिद्धि के लिए तीन दशकों की सेवा से अर्जित सेवानिवृत्ति लाभों को हमेशा के लिए जब्त कर लिया जाना चाहिए।”

अपील का निपटारा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार के संबंधित विभाग से अनुरोध किया कि वह इस मामले पर “मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए” विचार करे और यह प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी की जाए।

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