‘संदेह चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, वह प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता’: सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में 10 वर्षीय बालक की हत्या के मामले में तीनों आरोपियों को बरी किया

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि आपराधिक मामलों में संदेह, चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, ठोस सबूत का विकल्प नहीं हो सकता। अदालत ने उत्तराखंड में वर्ष 2007 में 10 वर्षीय बालक की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए तीन आरोपियों को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष की कहानी में “काफी गंभीर खामियां” थीं और प्रस्तुत साक्ष्य परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला को पूर्ण नहीं कर सके।

न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरश और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने तीनों आरोपियों की अपील स्वीकार करते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट  के नवंबर 2017 के उस निर्णय को रद्द कर दिया, जिसमें उनकी सजा और दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया था।

“संदेहास्पद गवाही के आधार पर वैज्ञानिक जांचों को नज़रअंदाज़ कर दोषसिद्धि करना, संदेह को प्रमाण के स्थान पर रखना है। सुप्रीम कोर्ट बार-बार यह कह चुका है कि संदेह, चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, साक्ष्य का स्थान नहीं ले सकता,” पीठ ने कहा।

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यह मामला एक 10 वर्षीय बालक की दुखद मौत से जुड़ा है, जो 5 जून 2007 को अपने परिवार के आम के बाग की रखवाली के लिए गया था और वापस नहीं लौटा। देर शाम तक जब वह घर नहीं पहुंचा तो परिजनों ने उसकी तलाश शुरू की और अगले दिन उसका शव परिवार की ज़मीन पर एक गड्ढे के पास मिला।

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बालक के पिता ने थाना में रिपोर्ट दर्ज कराते हुए उन छह सहग्रामवासियों पर संदेह व्यक्त किया जिनसे उनका लंबे समय से विवाद चला आ रहा था।

ट्रायल कोर्ट ने अप्रैल 2014 में पांच आरोपियों को बरी कर दिया था, जबकि तीन को दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है और अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए कई अहम पहलू संदेह से परे प्रमाणित नहीं हो पाए।

1. एफआईआर में नामों का अभाव:
पीठ ने सबसे पहले यह उल्लेख किया कि एफआईआर में तीन में से दो अपीलकर्ताओं के नाम शामिल नहीं किए गए, जबकि शिकायतकर्ता उन्हें अच्छी तरह जानता था।

“हाई कोर्ट  ने इस कमी को स्वीकार किया लेकिन उसे महत्वहीन मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया। यह दृष्टिकोण स्वीकार्य नहीं है। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामले में प्रत्येक परिस्थिति का कठोर परीक्षण आवश्यक होता है,” अदालत ने कहा।

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2. पहचान साक्ष्य में खामियां:
पीठ ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने अदालत में की गई पहचान (dock identification) पर भरोसा किया, लेकिन कोई टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (TIP) नहीं कराई गई। दो गवाहों ने पहली बार अदालत में आरोपियों की पहचान की, जिनमें से एक ने स्वीकार किया कि वह उन्हें पहले से नहीं जानता था।

“यह विधिक रूप से स्थापित सिद्धांत है कि जब गवाह आरोपी को पहले से नहीं जानता हो, तब बिना TIP के की गई अदालत में पहचान का साक्ष्य मूल्य बहुत कम होता है,” अदालत ने कहा।

3. ‘लास्ट सीन थ्योरी’ और वैज्ञानिक साक्ष्य:
अभियोजन पक्ष का ‘लास्ट सीन थ्योरी’ पर भरोसा इस मामले में गलत पाया गया। अदालत ने कहा कि फॉरेंसिक रिपोर्ट निष्कर्षहीन थी, इसके बावजूद हाई कोर्ट  ने डीएनए साक्ष्य की अनुपस्थिति को महत्वहीन मानते हुए केवल नेत्रसाक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि को बरकरार रखा।

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“पूरी तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामले में यह दृष्टिकोण स्वीकार्य नहीं है। जब वैज्ञानिक साक्ष्य निष्पक्ष या आरोपी के पक्ष में हों, तो न्यायालयों को उसे पर्याप्त महत्व देना चाहिए,” पीठ ने कहा।

अदालत ने पाया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की श्रृंखला अपूर्ण थी और अभियोजन पक्ष द्वारा महत्वपूर्ण वैज्ञानिक व प्रत्यक्ष साक्ष्यों को नज़रअंदाज़ किया गया। इसलिए अपीलकर्ताओं को संदेह का लाभ दिया गया और उन्हें बरी कर दिया गया।

“यह विधिक रूप से स्थापित है कि संदेह, चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता। तदनुसार, अपीलकर्ताओं को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए,” पीठ ने कहा।

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