क्या समलैंगिक जोड़े एक-दूसरे के लिए मेडिकल फैसले ले सकते हैं? दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र और NMC से मांगा जवाब

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम याचिका पर सुनवाई शुरू की है जिसमें पूछा गया है कि क्या समलैंगिक जोड़ों को एक-दूसरे के लिए अहम मेडिकल फैसले लेने का कानूनी अधिकार मिल सकता है। गुरुवार को अदालत ने केंद्र सरकार और नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। याचिका में समलैंगिक जोड़ों को स्वास्थ्य सेवाओं में पति-पत्नी जैसे अधिकार देने की मांग की गई है।

यह मामला न्यायमूर्ति सचिन दत्ता की पीठ के समक्ष लाया गया था। याचिका दायर करने वाली महिला ने पिछले साल न्यूजीलैंड में अपनी पार्टनर से शादी की थी। उनका कहना है कि भारत के मौजूदा मेडिकल नियमों में समलैंगिक जोड़ों को ‘निकटतम संबंधी’ (next-of-kin) के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है, जिससे मेडिकल इमरजेंसी में बड़ी परेशानी होती है।

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याचिका में कहा गया है कि जब पार्टनर का परिवार अलग-अलग राज्यों या विदेश में रहता है, तब इमरजेंसी में इलाज के लिए जरूरी सहमति देने वाला कोई नहीं होता। ऐसे में पार्टनर, जो सबसे नजदीकी व्यक्ति है, कानूनी रूप से असमर्थ हो जाता है, जबकि पति या पत्नी को यह अधिकार स्वतः मिलता है।

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कानूनी चुनौती भारतीय मेडिकल काउंसिल (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) नियम, 2002 को लेकर दी गई है। इन नियमों के तहत इलाज के लिए ‘पति या पत्नी, माता-पिता या अभिभावक’ अथवा मरीज से ही सहमति लेने की व्यवस्था है। याचिका में तर्क दिया गया है कि यह परिभाषा समलैंगिक जोड़ों को बाहर कर देती है, जिससे उनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुंच में भेदभाव होता है।

याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किर्पाल ने दलील दी कि यह व्यवस्था संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, जिनमें समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), भेदभाव से मुक्ति (अनुच्छेद 15), अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19), और जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) शामिल हैं। याचिका में कहा गया कि यह “संवैधानिक नैतिकता” के भी खिलाफ है, जो व्यक्तिगत गरिमा और विविधता के सम्मान की मांग करती है।

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याचिका में अदालत से दो मुख्य उपायों पर विचार करने का अनुरोध किया गया है। पहला, सभी अस्पतालों और चिकित्सकों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाएं ताकि वे समलैंगिक पार्टनरों को अधिकृत मेडिकल प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दें। दूसरा विकल्प यह सुझाया गया है कि यदि एक पार्टनर ने दूसरे को मेडिकल पावर ऑफ अटॉर्नी दी हो, तो उसे कानूनी रूप से बाध्यकारी माना जाए, ताकि मेडिकल इमरजेंसी में उनके फैसलों का सम्मान किया जा सके।

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अदालत ने केंद्र और NMC को इस याचिका पर अपना पक्ष रखने का निर्देश दिया है। इस मामले में आने वाला फैसला LGBTQ+ जोड़ों के अधिकारों और मान्यता को लेकर देशभर में अहम मिसाल बन सकता है।

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