साझा आशय रखने वाले समूह के सभी सदस्य बलात्कार के लिए संयुक्त दायित्व सिद्धांत के तहत जिम्मेदार: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट, बिलासपुर ने दो नाबालिग अनुसूचित जाति बहनों के सामूहिक बलात्कार मामले में नौ दोषियों की अपीलों को खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा है। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति विभु दत्ता गुरु की पीठ ने स्पष्ट किया कि जब अपराध साझा आशय के तहत किया जाता है, तो समूह के सभी सदस्य भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के तहत समान रूप से जिम्मेदार होते हैं, चाहे सभी ने प्रत्यक्ष रूप से मुख्य कृत्य किया हो या नहीं।

पृष्ठभूमि

यह आपराधिक अपीलें (सीआरए संख्या 390, 394, 440, और 820/2021) अजय वर्मा @ छोटू, शिवम वर्मा @ मोनू, सोहन ध्रुव, राजेंद्र कुमार डहरिया @ लाला डहरिया @ राजेंद्र डायमंड, उकेश @ राकेश डहरिया, कमलेश @ रॉकी घृतलहरे, गोपी साहू, पीयूष वर्मा @ मिंटू, और जगन्नाथ यादव @ मोलू ने विशेष न्यायाधीश (अत्याचार निवारण), बलौदाबाजार द्वारा 10 मार्च 2021 को विशेष प्रकरण (अत्याचार) संख्या 52/2020 में सुनाए गए निर्णय को चुनौती देते हुए दायर की थीं।

अभियोजन पक्ष का मामला

अभियोजन के अनुसार, 30 मई 2020 को दो नाबालिग बहनों को आरोपी कमलेश घृतलहरे और गोपी साहू ने उनके अभिभावक की अनुमति के बिना घर से बाहर बुलाया। लौटते समय, अन्य छह आरोपियों ने उन्हें रास्ते में रोककर उनके साथ अपराध किया।

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आरोपी राजेंद्र डहरिया ने घटना का वीडियो अपने मोबाइल में रिकॉर्ड किया, जिसे बाद में पीयूष वर्मा ने धमकी देने और ब्लैकमेल करने के लिए इस्तेमाल किया। प्रारंभ में भयवश चुप रहने के बाद, पीड़िताओं ने 28 जुलाई 2020 को अपने माता-पिता को घटना की जानकारी दी और 29 जुलाई 2020 को एफआईआर दर्ज कराई गई।

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जांच के दौरान पुलिस ने मोबाइल फोन, वीडियो साक्ष्य, मेडिकल परीक्षण और गवाहों के बयान एकत्र किए।

अपीलकर्ताओं के तर्क

अपीलकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता श्री ए.एस. राजपूत, श्री समीर सिंह, श्री रत्नेश कुमार अग्रवाल और श्री विकास कुमार पांडे ने तर्क दिया कि:

  • प्राथमिकी दर्ज करने में दो महीने से अधिक की देरी हुई,
  • चिकित्सकीय रिपोर्ट अभियोजन की कहानी का समर्थन नहीं करती,
  • गवाहों के बयानों में विरोधाभास और चूकें हैं,
  • पीड़िताओं की उम्र के प्रमाण पर्याप्त रूप से सिद्ध नहीं हुए,
  • केवल पीड़िताओं के बयानों के आधार पर सजा सुनाई गई, स्वतंत्र साक्ष्य नहीं हैं।

राज्य पक्ष का जवाब

राज्य की ओर से अधिवक्ता श्री शैलेन्द्र शर्मा ने प्रस्तुत किया:

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“अभियोजन पक्ष ने साबित किया है कि घटना के समय पीड़िताएं नाबालिग थीं, जिसे स्कूल प्रवेश रजिस्टर Ex.P-44C और Ex.P-118C में दर्ज जन्म तिथि (PW-1: 05.09.2003, PW-2: 24.06.2005) से स्पष्ट किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि घटना के समय वे 18 वर्ष से कम आयु की थीं।”

इसके अलावा, अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र (Ex.P-23, Ex.P-24) से जाति का प्रमाण हुआ। अभियोजन पक्ष ने इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य, कॉल डिटेल रिकॉर्ड, पीड़िताओं और उनके पिता सहित गवाहों के बयानों पर भरोसा किया।

कोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों (जर्नैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य, उस्मान बनाम उत्तराखंड राज्य) का संदर्भ लेते हुए किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम के तहत उम्र निर्धारण को स्वीकार किया।

पीड़िताओं की अनुसूचित जाति की स्थिति पर कोर्ट ने कहा:

“यह प्रमाणित हुआ है कि पीड़िताएं अनुसूचित जाति श्रेणी से संबंधित थीं।”

साझा आशय और अपहरण पर, कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 361 का उल्लेख करते हुए कहा:

“भले ही दोनों आरोपी कमलेश और गोपी के साथ जाने के लिए PW-1 और PW-2 सहमत हो गई हों, फिर भी इन आरोपियों को उनके वैध अभिभावक की अनुमति के बिना रात में इस तरह ले जाने का कोई अधिकार नहीं था।”

इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य पर कोर्ट ने माना:

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“इस प्रकार, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य, जैसा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के प्रावधानों के अनुसार विधिवत प्रमाणित किया गया है, ग्राह्य है।”

एफआईआर में देरी पर, कोर्ट ने राज्य बनाम ज्ञान चंद और तारा सिंह बनाम पंजाब राज्य के संदर्भ में कहा:

“केवल रिपोर्ट दर्ज करने में देरी स्वयं अभियोजन के मामले को अस्वीकार करने के लिए प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं दे सकती।”

निर्णय

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों का सही मूल्यांकन किया और सभी अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि और सजा उचित रूप से निर्धारित की। सभी अपीलें “अस्पष्ट, निराधार और गुणहीन” मानते हुए खारिज कर दी गईं।

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