सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को स्पष्ट किया कि यदि भारत में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थी भारतीय कानून के तहत “विदेशी” पाए जाते हैं, तो उन्हें Foreigners Act के तहत निर्वासित किया जाना होगा। कोर्ट ने दोहराया कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) द्वारा जारी पहचान पत्र भारतीय कानून के तहत किसी प्रकार की कानूनी सुरक्षा नहीं प्रदान करते।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने यह टिप्पणी उस समय की जब वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंसाल्विस और प्रशांत भूषण द्वारा रोहिंग्या शरणार्थियों की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई हो रही थी। याचिकाओं में निर्वासन से सुरक्षा और अन्य राहतें मांगी गई थीं।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, “यदि वे Foreigners Act के तहत विदेशी हैं, तो उन्हें निर्वासित किया जाना ही होगा।” अदालत को बताया गया कि बुधवार देर रात कई रोहिंग्या शरणार्थियों, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे और जिनके पास UNHCR कार्ड थे, को पुलिस ने गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया, जबकि मामला अगली सुबह सुनवाई के लिए सूचीबद्ध था।
वरिष्ठ अधिवक्ता गोंसाल्विस ने इस कार्रवाई को “चौंकाने वाला” और “अदालत की अवमानना” करार देते हुए कहा कि यह न्यायिक अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण है। अधिवक्ता भूषण ने मामले की अंतिम सुनवाई की मांग करते हुए तर्क दिया कि भारत ‘Genocide Convention’ का हस्ताक्षरकर्ता है, जिसे ध्यान में रखा जाना चाहिए।
पीठ ने 31 जुलाई को अंतिम सुनवाई के लिए मामला सूचीबद्ध करते हुए कहा कि स्थायी समाधान निकालना अधिक उचित होगा। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, “यदि उन्हें यहां रहने का अधिकार है, तो इसे मान्यता दी जाए। यदि नहीं, तो उन्हें कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए निर्वासन का सामना करना होगा।”
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जिन्होंने केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व किया, ने अदालत के 8 अप्रैल 2021 के आदेश का हवाला दिया, जिसमें कानून के अनुसार निर्वासन की अनुमति दी गई थी। उन्होंने यह भी दोहराया कि भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, इसलिए उसकी बाध्यताएं भारत पर लागू नहीं होतीं।
हालांकि, 2021 के फैसले में यह माना गया था कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत अधिकार सभी व्यक्तियों को प्राप्त हैं, चाहे वे नागरिक हों या नहीं। वहीं अनुच्छेद 19 के तहत रहने का अधिकार केवल नागरिकों के लिए आरक्षित है, इसलिए निर्वासन से संरक्षण का अधिकार निरपेक्ष नहीं है।
सुनवाई के अंत में न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने स्पष्ट किया कि आगे यदि कोई निर्वासन होता है, तो वह कानून के तहत उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए ही किया जाना चाहिए, जैसा कि सॉलिसिटर जनरल ने आश्वासन दिया।