राज्य के बाहर के शिक्षण अनुभव के आधार पर सेवानिवृत्ति लाभ से वंचित करना अनुचित, भेदभावपूर्ण और मनमाना: सुप्रीम कोर्ट

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा कुछ विश्वविद्यालय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष करने संबंधी अधिसूचना को इस तरह नहीं पढ़ा जा सकता कि यह उन कर्मचारियों को बाहर कर दे जिनका शिक्षण अनुभव राज्य के बाहर किसी राज्य सहायता प्राप्त विश्वविद्यालय या कॉलेज से हो।

न्यायमूर्ति पामिदिघंटम श्री नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने कलकत्ता हाईकोर्ट के डिवीजन बेंच के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि कर्मचारियों को उनके भूतपूर्व शिक्षण अनुभव के स्थान के आधार पर वर्गीकृत करना “कृत्रिम, भेदभावपूर्ण और मनमाना” है। कोर्ट ने इसे “सांप्रदायिक सोच से प्रेरित निर्णय” बताया जो “हमारे भाईचारे के संकल्प को कमजोर करता है।”

मामला क्या था?

यह याचिका शुभ प्रसाद नंदी मजुमदार ने दायर की थी, जिन्हें 23 जनवरी 1991 को कछार कॉलेज, सिलचर (असम) में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। वहां 16 वर्षों की सेवा के बाद उन्हें 2007 में बर्दवान विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल में साइंस संकाय परिषद के सचिव के रूप में नियुक्त किया गया। बाद में उन्हें 26 जनवरी 2012 को वरिष्ठ सचिव के पद पर पदोन्नत किया गया।

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विवाद तब शुरू हुआ जब 24 फरवरी 2021 को पश्चिम बंगाल सरकार ने एक ज्ञापन जारी कर कुछ गैर-शिक्षकीय विश्वविद्यालय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 65 वर्ष कर दी। इस लाभ की शर्त थी कि कर्मचारी के पास “राज्य सहायता प्राप्त किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज में कम से कम 10 वर्षों का निरंतर शिक्षण अनुभव” होना चाहिए।

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मजुमदार ने इस लाभ के लिए आवेदन किया, लेकिन विश्वविद्यालय ने 28 जून 2023 को उन्हें सूचित किया कि चूंकि उनका शिक्षण अनुभव पश्चिम बंगाल राज्य द्वारा सहायता प्राप्त संस्थान से नहीं था, इसलिए उन्हें 60 वर्ष की आयु में ही सेवानिवृत्त होना पड़ेगा।

हाईकोर्ट में कार्यवाही

याचिकाकर्ता ने इस निर्णय को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी। एकल न्यायाधीश ने उनकी याचिका स्वीकार की और माना कि अधिसूचना में “any State-aided University or College” शब्दावली इतनी व्यापक है कि वह अन्य राज्यों के संस्थानों को भी शामिल करती है। उन्होंने कहा कि राज्य की व्याख्या को मानने का अर्थ होगा अधिसूचना में “in West Bengal” जैसे शब्द जोड़ना, जो अनुमेय नहीं है।

हालांकि, राज्य और विश्वविद्यालय ने इस आदेश के विरुद्ध अपील की। डिवीजन बेंच ने एकल न्यायाधीश का आदेश पलटते हुए कहा कि अधिसूचना को उसके मूल अधिनियम — पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय (व्यय नियंत्रण) अधिनियम, 1976 — के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इस अधिनियम में 2017 में किए गए संशोधन में ‘राज्य सहायता प्राप्त विश्वविद्यालय’ और ‘राज्य सरकार’ की परिभाषा केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है, अतः 10 वर्षों का शिक्षण अनुभव भी राज्य के भीतर का ही होना चाहिए।

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सुप्रीम कोर्ट में दलीलें

सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव अग्रवाल ने प्रस्तुत किया कि अधिसूचना की संकीर्ण व्याख्या अनुचित है। राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता और बर्दवान विश्वविद्यालय की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कृष्णन वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि अधिसूचना की व्याख्या उसके मूल अधिनियम की परिभाषाओं के संदर्भ में ही होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

न्यायमूर्ति नरसिम्हा द्वारा लिखित निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने डिवीजन बेंच की व्याख्या से असहमति जताई और कहा कि अधिसूचना और अधिनियम दोनों में “राज्य सहायता प्राप्त विश्वविद्यालय या कॉलेज” शब्दावली का प्रयोग केवल यह बताने के लिए किया गया है कि संस्था को सहायता प्राप्त होनी चाहिए, न कि वह भौगोलिक रूप से पश्चिम बंगाल में ही स्थित हो।

कोर्ट ने कहा:
“अधिसूचना का उद्देश्य यह नहीं है कि 10 वर्षों का शिक्षण अनुभव केवल पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में होना चाहिए।”

न्यायालय ने यह भी कहा:
“पश्चिम बंगाल में शिक्षण अनुभव रखने वाले और बाहर के अनुभव रखने वालों के बीच किया गया यह वर्गीकरण कृत्रिम, भेदभावपूर्ण और मनमाना है।”

कोर्ट ने इस प्रकार की कार्यपालिका निर्णयों की आलोचना करते हुए कहा:
“ऐसे निर्णय जब न्यायिक समीक्षा में कसौटी पर कसे जाते हैं, तो वे क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों को उजागर करते हैं और भाईचारे की संवैधानिक भावना को कमजोर करते हैं।”

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कोर्ट ने यह भी जोड़ा:
“भाईचारे का सिद्धांत स्वयं अपनी उपस्थिति नहीं जताता। यह संवैधानिक न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे प्रशासनिक गलियों में इसकी क्षीणता को पहचानें और उसे पुनर्स्थापित करें ताकि राष्ट्र की एकता और अखंडता बनी रहे।”

कोर्ट ने J.S. Rukmani v. Govt. of T.N. और Harshendra Choubisa v. State of Rajasthan जैसे मामलों का हवाला देते हुए कहा कि सेवा लाभों के लिए निवास स्थान या सेवा स्थल के आधार पर वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है।

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए डिवीजन बेंच का निर्णय रद्द कर दिया। कोर्ट ने घोषित किया कि शुभ प्रसाद नंदी मजुमदार अधिसूचना दिनांक 24 फरवरी 2021 के लाभ के पात्र हैं और अब वे 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होंगे। साथ ही, अदालत ने राज्य और विश्वविद्यालय को ₹50,000 की लागत भी याचिकाकर्ता को अदा करने का निर्देश दिया।

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