यौन स्वायत्तता की कानूनी सुरक्षा को सुदृढ़ करते हुए, दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में एक महिला द्वारा दर्ज दुष्कर्म की एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया। महिला ने आरोप लगाया था कि उसे विवाह का झूठा वादा कर यौन शोषण का शिकार बनाया गया। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब आरोप विवाह के झूठे वादे के माध्यम से यौन संबंध बनाने के धोखे से जुड़े हों, तब पक्षों के बीच उम्र का अंतर किसी प्रकार का वैध बचाव नहीं हो सकता।
मामले का विवरण
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने CRL.M.C. 2104/2022 एवं CRL.M.A. 8894/2022, शीर्षक X बनाम राज्य एनसीटी दिल्ली एवं अन्य की सुनवाई करते हुए, आरोपी पुरुष द्वारा एफआईआर संख्या 99/2021 (सफदरजंग एन्क्लेव थाने में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और 377 के तहत दर्ज) को रद्द करने की याचिका खारिज कर दी।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री कुशल कुमार, श्री आकाश दीप गुप्ता और श्री राजन मल्होत्रा ने पक्ष रखा। राज्य की ओर से APP श्री नरेश कुमार चाहर उपस्थित थे, जबकि उत्तरदाता संख्या 2 (शिकायतकर्ता) की ओर से श्री सुर्भित नंदन और श्री संदीप मिश्रा ने पक्ष रखा।
मामले की पृष्ठभूमि
एफआईआर के अनुसार, शिकायतकर्ता और याचिकाकर्ता की मुलाकात अक्टूबर 2017 में गुरुग्राम स्थित उनके कार्यस्थल पर हुई थी। दिसंबर 2017 में उनके बीच प्रेम संबंध शुरू हुआ। शिकायतकर्ता का आरोप है कि याचिकाकर्ता ने लगातार उससे विवाह का आश्वासन दिया, जिस कारण उसने अन्य वैवाहिक प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। उसने आरोप लगाया कि 2018 से 2021 तक याचिकाकर्ता ने कई बार उससे शारीरिक संबंध बनाए—जिसमें अप्राकृतिक यौन संबंध भी शामिल था—उसकी अनिच्छा के बावजूद, विवाह के वादे के नाम पर।
महिला ने यह भी आरोप लगाया कि उसने याचिकाकर्ता को विवाह के वादे पर भरोसा करते हुए 4-5 लाख रुपये उधार दिए। मार्च 2021 में जब वह दूरी बनाने लगा तो शिकायतकर्ता ने उसका सामना किया, तब उसने न तो विवाह की बात मानी और न ही पैसे लौटाए। इस पर महिला ने 4 मई 2021 को शिकायत दर्ज कराई, जिससे यह एफआईआर दर्ज हुई।
कानूनी मुद्दों की समीक्षा
कोर्ट ने यह जांच की कि क्या विवाह के झूठे वादे के आधार पर प्राप्त सहमति को वैध माना जा सकता है, क्या उम्र का अंतर इसमें कोई भूमिका निभाता है, और क्या यह सहमति आईपीसी की धारा 90 के तहत “सहमति” मानी जा सकती है।
न्यायमूर्ति शर्मा ने अनुराग सोनी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य [(2019) 13 SCC 1] मामले पर भरोसा जताया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि यदि आरोपी की विवाह करने की कोई मंशा नहीं थी और फिर भी उसने झूठा वादा कर सहमति प्राप्त की, तो वह “जानकारी के भ्रम” पर आधारित सहमति होगी और वह बलात्कार की परिभाषा में आएगी।
कोर्ट ने कहा:
“यदि यह स्थापित हो जाए कि शुरुआत से ही आरोपी की शादी की कोई मंशा नहीं थी और पीड़िता ने उसी आश्वासन पर सहमति दी थी, तो ऐसी सहमति धारा 90 आईपीसी के तहत तथ्य के भ्रम पर आधारित मानी जाएगी।”
कोर्ट की टिप्पणियाँ
कोर्ट ने याचिकाकर्ता की इस दलील को खारिज कर दिया कि पीड़िता की उम्र अधिक होने और पारिवारिक विरोध की जानकारी होने के कारण उसकी सहमति स्वैच्छिक थी। न्यायमूर्ति शर्मा ने इसे “पितृसत्तात्मक और विधिक रूप से त्रुटिपूर्ण” करार दिया।
कोर्ट ने कहा:
“यह तर्क कि पीड़िता को उम्र के अंतर के कारण विवाह में कठिनाई का एहसास होना चाहिए था, विधिक रूप से असंगत और निराधार है… एक महिला द्वारा पुरुष के विशेष वादों के आधार पर संबंध बनाना केवल एक जुनून नहीं माना जा सकता।”
“ऐसा तर्क न केवल विधिक आधारहीन है, बल्कि यह एक पुरुषवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो पीड़िता पर अनुचित बोझ डालने का प्रयास करता है।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पीड़िता की सहमति “विवाह की वैध अपेक्षा” पर आधारित थी और यदि ट्रायल में यह सिद्ध हो जाता है कि याचिकाकर्ता की विवाह करने की कोई मंशा नहीं थी, तो वह सहमति विधिक रूप से अमान्य होगी।
फैसला
याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा:
“याचिकाकर्ता के खिलाफ लगे आरोपों की प्रकृति और रिकॉर्ड पर मौजूद प्रथम दृष्टया साक्ष्यों को देखते हुए, इस स्तर पर एफआईआर को रद्द करने का कोई औचित्य नहीं बनता।”
इस प्रकार, याचिका और सभी लंबित आवेदन खारिज कर दिए गए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उसकी टिप्पणियाँ केवल एफआईआर रद्द करने की याचिका के संदर्भ में की गई हैं और ट्रायल की मेरिट को प्रभावित नहीं करेंगी।
