राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर पीठ ने डॉ. भीमराव अंबेडकर लॉ यूनिवर्सिटी द्वारा एक एलएलबी छात्र की पूरी द्वितीय वर्ष की परीक्षा रद्द करने के आदेश को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि विश्वविद्यालय ने विश्वविद्यालय अध्यादेश 152 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं किया और अपीलीय प्राधिकरण का आदेश बिना किसी कारण के पारित किया गया, जो कि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
यह फैसला न्यायमूर्ति अनुप कुमार ढांड ने सिविल रिट याचिका संख्या 7069/2025 में पारित किया, जो याचिकाकर्ता मोहित शर्मा द्वारा 17 फरवरी 2025 के अपीलीय आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, जिनकी ओर से अधिवक्ता श्री विक्रम बल्लभ शरण व श्रीमती अक्षिता शर्मा ने पैरवी की, 31 जुलाई 2024 को “पब्लिक इंटरनेशनल लॉ एंड ह्यूमन राइट्स” विषय की द्वितीय वर्ष की परीक्षा में उपस्थित हुए थे। परीक्षा के दौरान एक फ्लाइंग स्क्वॉड सदस्य ने उनकी जेबों की तलाशी ली। याचिकाकर्ता के अनुसार उन्होंने तलाशी देने में सहयोग किया, लेकिन यह कहते हुए आपत्ति जताई कि पहले ही परीक्षा कक्ष में प्रवेश के समय जांच हो चुकी थी। विश्वविद्यालय ने इस आपत्ति को “दुराचार” (Disorderly Conduct) मानते हुए 10 जनवरी 2025 को आदेश पारित कर उनकी वर्तमान परीक्षा को रद्द कर दिया और उन्हें एक वर्ष के लिए डिबार कर दिया।

बाद में अपीलीय प्राधिकरण ने दंड को संशोधित कर केवल वर्तमान परीक्षा रद्द करने तक सीमित कर दिया। इसी आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय का रुख किया।
वकीलों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से:
अधिवक्ताओं ने दलील दी कि घटना के समय याचिकाकर्ता की स्थिति को फॉर्म 39-ई में दर्ज नहीं किया गया और ना ही उनकी प्रतिक्रिया ली गई। याचिकाकर्ता ने अपील में माफ़ी भी मांगी थी, इसके बावजूद उन पर कठोर दंड लगाया गया। उन्होंने दंड को अनुपातहीन बताते हुए न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की।
उत्तरदाता विश्वविद्यालय की ओर से:
विश्वविद्यालय की ओर से अधिवक्ता श्री अजीत मालू ने कहा कि याचिकाकर्ता ने तलाशी से इनकार किया, शोरगुल किया, फ्लाइंग स्क्वॉड को धमकाया और मोबाइल फोन का प्रयोग करने पर ज़ोर दिया। उनके अनुसार यह आचरण विश्वविद्यालय द्वारा अपनाए गए राजस्थान विश्वविद्यालय के अध्यादेश 152(2) के तहत “दुराचार” की श्रेणी में आता है।
कोर्ट की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
कोर्ट ने पाया कि विश्वविद्यालय द्वारा पेश किए गए फॉर्म 39-ई (अनु. R1/2) में याचिकाकर्ता की ओर से दस्तखत न करने या जवाब देने से इनकार करने का कोई उल्लेख नहीं था।
न्यायमूर्ति ढांड ने कहा:
“इस न्यायालय की सुविचारित राय में, प्रतिवादी विश्वविद्यालय ने अध्यादेश 152 में निहित प्रावधानों का पालन नहीं किया और याचिकाकर्ता की पूरी द्वितीय वर्ष की परीक्षा रद्द कर दी, जो कि अत्यधिक कठोर दंड है।”
कोर्ट ने अध्यादेश 152 की धारा 3 का उल्लेख किया, जिसमें दंड के विभिन्न स्तर बताए गए हैं, जैसे कि केवल संबंधित विषय की परीक्षा को रद्द करना। कोर्ट ने कहा:
“धारा 3 एक हल्के दंड का भी प्रावधान करती है, जैसे कि केवल उस विषय की परीक्षा रद्द करना जिसमें छात्र दोषी पाया गया हो। परंतु विश्वविद्यालय ने पूरी द्वितीय वर्ष की परीक्षा रद्द कर दी।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि अपीलीय प्राधिकरण का आदेश एक पंक्ति में पारित किया गया, जिसमें याचिकाकर्ता की दलीलों पर विचार नहीं किया गया।
“यदि कोई अपील बिना कारणों को दर्ज किए निपटाई जाती है, तो वह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन मानी जाती है। आखिरकार, ऐसा दंड आदेश छात्र के जीवन, भविष्य और करियर पर कलंक छोड़ता है।”
अंतिम आदेश
हाईकोर्ट ने 17 फरवरी 2025 का आदेश निरस्त कर दिया और मामले को पुनः विचार हेतु अपीलीय प्राधिकरण को भेज दिया। कोर्ट ने निर्देश दिया:
“नवीन आदेश प्रमाणित प्रति प्राप्त होने की तिथि से दो सप्ताह की अवधि के भीतर पारित किया जाए।”
याचिका और सभी लंबित प्रार्थना पत्रों का निस्तारण कर दिया गया।