पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कोर्ट के आदेश की जानबूझकर अवहेलना करने के लिए एक पति को दोषी ठहराते हुए तीन महीने की साधारण कैद की सजा सुनाई है। कोर्ट ने पाया कि पति ने अपनी पहली पत्नी द्वारा तलाक की डिक्री के खिलाफ दायर अपील के लंबित रहने के दौरान दूसरी शादी कर ली, जो कि न्यायिक प्रक्रिया का सीधा उल्लंघन है।
यह मामला याचिकाकर्ता-पत्नी द्वारा दायर अवमानना याचिका से संबंधित है। पत्नी का आरोप था कि हाईकोर्ट द्वारा तलाक की डिक्री पर रोक (Stay) लगाए जाने और अपील लंबित होने के बावजूद प्रतिवादी-पति ने दूसरी शादी कर ली। जस्टिस अलका सरीन ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि अपील दायर होने के बाद और निर्धारित अवधि (Limitation Period) के भीतर दूसरी शादी करना कोर्ट की प्रक्रिया की “जानबूझकर और इरादतन अवज्ञा” है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता-पत्नी और प्रतिवादी-पति का विवाह 9 दिसंबर, 2012 को यमुनानगर जिले के बिलासपुर में हिंदू रीति-रिवाजों से संपन्न हुआ था। इस शादी से उनकी एक बेटी भी है।
2 मार्च, 2020 को फैमिली कोर्ट, यमुनानगर (जगाधरी) ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत पति के पक्ष में तलाक की डिक्री पारित कर दी। इस फैसले से असंतुष्ट होकर पत्नी ने 12 मार्च, 2020 को हाईकोर्ट में अपील (FAO-1935-2020) दायर की। यह अपील कानून द्वारा निर्धारित समय सीमा के भीतर दायर की गई थी।
कोविड-19 महामारी के कारण मामले की सुनवाई 15 जून, 2020 को हुई और नोटिस जारी किया गया। इसके बाद, 13 अगस्त, 2020 को हाईकोर्ट की एक खंडपीठ (Division Bench) ने तलाक के फैसले और डिक्री के संचालन पर रोक (Stay) लगा दी।
अवमानना याचिका के अनुसार, प्रतिवादी-पति ने 3 जनवरी, 2021 को दूसरी शादी कर ली। पत्नी का कहना था कि यह कृत्य 13 अगस्त, 2020 के अदालती आदेश की सीधी अवहेलना है।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता-पत्नी का पक्ष: पत्नी के वकील, श्री जी.सी. शाहपुरी ने तर्क दिया कि अपील निर्धारित समय के भीतर दायर की गई थी। उन्होंने जसबीर कौर बनाम कुलजीत सिंह [2008 (2) RCR (Civil) 929] के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, जब तक अपील दायर करने की अवधि समाप्त नहीं हो जाती या अपील खारिज नहीं हो जाती, कोई भी व्यक्ति पुनर्विवाह नहीं कर सकता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि अपील का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और दूसरी शादी करके पति ने सुलह की किसी भी संभावना को खत्म कर दिया है।
प्रतिवादी-पति का पक्ष: प्रतिवादी-पति, जिसका प्रतिनिधित्व वकील श्री साकेत भंडारी ने किया, ने तर्क दिया कि उसे अपील में कभी नोटिस तामील (Serve) नहीं हुआ था और उसे कार्यवाही का पता तब चला जब उसकी दूसरी शादी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। उन्होंने दावा किया कि प्रोसेस सर्वर की गलती के लिए उन्हें अवमानना का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
कार्यवाही के दौरान प्रतिवादी ने बिना शर्त माफी (Unconditional Apology) भी मांगी। उनके वकील ने बचाव में कई फैसलों का हवाला दिया, यह तर्क देते हुए कि नोटिस की तामील न होने के कारण उन्हें अवमानना के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाना चाहिए।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
जस्टिस अलका सरीन ने प्रतिवादी के बचाव को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पाया कि अपील समय सीमा के भीतर दायर की गई थी और प्रतिवादी ने उसी पते पर नोटिस लेने से परहेज किया जो उसने अपनी तलाक याचिका में दिया था।
कोर्ट ने जसबीर कौर मामले में खंडपीठ के फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें स्थापित किया गया था कि:
“अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, तलाकशुदा पक्ष तभी शादी कर सकता है जब अपील दायर करने की अवधि समाप्त हो गई हो या अपील खारिज कर दी गई हो। इसका अर्थ यह है कि डिक्री धारक को यह पूछताछ करनी चाहिए कि क्या निर्धारित अवधि के भीतर कोई अपील दायर की गई है। ऐसा जीवनसाथी घर पर बैठकर समन आने का इंतजार नहीं कर सकता क्योंकि जरूरी नहीं कि जीतने वाले पक्ष को समय सीमा के भीतर समन मिल ही जाए।”
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले एन. राजेंद्रन बनाम एस. वल्ली [(2025) 3 SCC 801] का भी हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि तलाक के बाद पुनर्विवाह पर धारा 15 की रोक केवल अपील दायर होने पर ही लागू हो जाती है।
नोटिस न मिलने की दलील पर कोर्ट ने टिप्पणी की:
“भले ही प्रतिवादी-पति के वकील के इस तर्क को मान लिया जाए कि उसे अपील में नोटिस नहीं मिला था, फिर भी उसने स्वीकार किया है कि उसने अपील दायर करने की निर्धारित अवधि के भीतर कभी कोई पूछताछ नहीं की।”
कोर्ट ने प्रतिवादी द्वारा मांगी गई बिना शर्त माफी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। जस्टिस सरीन ने कहा:
“मौजूदा मामले में माफी स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि यह हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 15 का जानबूझकर उल्लंघन है।”
प्रतिवादी के कृत्य के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए कोर्ट ने कहा:
“प्रतिवादी-पति का कृत्य और आचरण ऐसा है कि समय को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और जो नुकसान हुआ है उसे सुधारा नहीं जा सकता। व्यावहारिक रूप से, प्रतिवादी-पति के आचरण ने याचिकाकर्ता-पत्नी द्वारा दायर अपील को निष्फल कर दिया है और पत्नी को उपचारहीन (Remediless) बना दिया है।”
फैसला
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने प्रतिवादी-पति को अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 12 के तहत सिविल अवमानना का दोषी ठहराया।
सजा सुनाते हुए कोर्ट ने आदेश दिया:
“उसे तीन महीने के साधारण कारावास और ₹2,000 के जुर्माने की सजा सुनाई जाती है। प्रतिवादी-पति को इस आदेश की तारीख से 15 दिनों के भीतर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, यमुनानगर (जगाधरी) के समक्ष आत्मसमर्पण करना होगा और उसे उपरोक्त सजा भुगतने के लिए न्यायिक हिरासत में भेजा जाएगा।”
कोर्ट ने जोर देकर कहा कि “कानून के शासन की पवित्रता और इस कोर्ट द्वारा पारित आदेशों के खुलेआम उल्लंघन और अनुपालन न करने को हल्के में नहीं लिया जा सकता।”

