पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सड़क दुर्घटना पीड़ित गगनदीप @ मोंटी को ₹1.3 करोड़ का मुआवजा देने का आदेश दिया। यह मामला 2000 में हुए सड़क हादसे से जुड़ा हुआ है, जिसमें पीड़ित को न्याय पाने में 24 साल की देरी हुई। न्यायमूर्ति संजय वशिष्ठ ने अपने फैसले में न्यायिक प्रणाली के आत्ममूल्यांकन की आवश्यकता जताई और कहा कि ऐसी लंबी देरी मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के उद्देश्यों को निष्फल कर देती है।
“घायल पीड़ित को दो दशक से अधिक समय तक न्याय से वंचित रखा गया, जो खुद मुकदमे की अवधि से भी लंबा है। इस देरी का दोष किसी एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम पर है, जिसे आत्मविश्लेषण और सुधार की जरूरत है।”
यह फैसला मोटर दुर्घटना दावों में एक महत्वपूर्ण मिसाल स्थापित करता है और ऐसे मामलों में अनावश्यक देरी को रोकने के लिए सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह घटना 18 जून 2000 की है, जब गगनदीप @ मोंटी, जो उस समय 16 वर्षीय छात्र थे, अपने दोस्त के साथ साइकिल पर चंडीगढ़ में CTU वर्कशॉप के पास जा रहे थे। इसी दौरान रफतार से आ रहे ट्रक (HR-37-A-0921) ने उन्हें टक्कर मार दी।
इस हादसे में पीड़ित को गंभीर चोटें आईं, जिनमें शामिल हैं:
- बाएं पैर का घुटने के नीचे से कट जाना
- मूत्राशय और मलाशय की गंभीर चोटें
- कूल्हे की हड्डी और अन्य हड्डियों में कई फ्रैक्चर
- 86% स्थायी दिव्यांगता, जिसके कारण वह जीवनभर चिकित्सा सहायता पर निर्भर रहेंगे
मामले की सुनवाई मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (MACT), चंडीगढ़ में हुई, जिसने 3 सितंबर 2004 को केवल ₹7.62 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया, जिसमें 9% वार्षिक ब्याज जोड़ा गया था। इस मुआवजे को अन्यायपूर्ण मानते हुए, पीड़ित ने 2005 में हाई कोर्ट में अपील दायर की, लेकिन यह अपील लगभग दो दशकों तक लंबित रही।
इस देरी के कारण:
- लगातार स्थगन और प्रक्रियात्मक बाधाएं
- केस के दस्तावेज़ आग में जल जाने के कारण पुनर्निर्माण की आवश्यकता
- लोक अदालत के माध्यम से सुलह के प्रयास विफल होना
2018 में हाई कोर्ट ने नए मेडिकल परीक्षण का आदेश दिया ताकि पीड़ित की स्थायी दिव्यांगता और भविष्य की चिकित्सा आवश्यकताओं का सही मूल्यांकन हो सके। अंततः, यह मामला 2025 में निपटाया गया, यानी दुर्घटना के 24 साल बाद।
अदालत की महत्वपूर्ण टिप्पणियां
न्यायमूर्ति संजय वशिष्ठ ने मामले में कई अहम बिंदुओं पर विचार किया:
- अपर्याप्त मुआवजे पर:
“मोटर वाहन अधिनियम के तहत दिया जाने वाला मुआवजा न तो वरदान हो सकता है और न ही इतना कम कि पीड़ित के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़े। न्याय संतुलन के साथ किया जाना चाहिए।”
- न्यायिक देरी और प्रणालीगत खामियों पर:
“यह मामला न्यायिक देरी का एक क्लासिक उदाहरण है। यदि न्याय में इतनी देरी होती है, तो वह न्याय नहीं रह जाता। हमें अपनी प्रणाली को इस तरह विकसित करना होगा कि कोई भी पीड़ित प्रक्रियात्मक खामियों के कारण पीड़ित न हो।”
- स्थायी दिव्यांगता और भविष्य की आवश्यकताओं पर:
“पीड़ित की दिव्यांगता सिर्फ पैर कटने तक सीमित नहीं है, बल्कि उनके आंतरिक अंगों को भी स्थायी क्षति हुई है। यह मुआवजा इस अपरिवर्तनीय नुकसान को ध्यान में रखते हुए तय किया जाना चाहिए।”
- बीमा कंपनियों की भूमिका पर:
“बीमा कंपनियां तकनीकी अड़चनों के जरिए मुआवजा देने से बच नहीं सकतीं। अनिवार्य वाहन बीमा का उद्देश्य पीड़ितों को राहत देना है, न कि उन्हें देरी से परेशान करना।”
अदालत का फैसला
हाई कोर्ट ने ताजा मेडिकल रिपोर्ट और कानूनी मिसालों को ध्यान में रखते हुए मुआवजा बढ़ाकर ₹1.3 करोड़ कर दिया, जो निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित है:
श्रेणी | राशि (₹) |
---|---|
भविष्य की आय की हानि (₹4,200/माह वेतन के आधार पर) | 90,70,000 |
भूतपूर्व और भविष्य के चिकित्सा खर्च | 22,00,000 |
निजी देखभाल और विशेष आहार खर्च | 10,00,000 |
दर्द, कष्ट और जीवन की गुणवत्ता में कमी | 7,30,000 |
भविष्य के कृत्रिम अंग और चिकित्सा उपकरणों की लागत | 4,00,000 |
कुल मुआवजा | ₹1.3 करोड़ |
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि:
- बीमा कंपनी को मुआवजे की राशि 2000 से लागू ब्याज सहित चुकानी होगी
- भविष्य में मोटर दुर्घटना दावों का शीघ्र निपटारा सुनिश्चित करने के लिए सख्त उपाय अपनाए जाएं
- न्यायपालिका को उन मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जहां पीड़ित गंभीर स्थायी दिव्यांगता से जूझ रहे हैं
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