सुप्रीम कोर्ट ने श्री चिक्केगौड़ा व अन्य बनाम कर्नाटक राज्य मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कर्नाटक हाईकोर्ट के उस निर्णय को बरकरार रखा है जिसमें सात व्यक्तियों को हत्या और अन्य अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया था। इस फैसले के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा दिए गए बरी करने के आदेश को पलट दिया।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने स्थापित कानूनी सिद्धांत को दोहराया कि एक घायल चश्मीद गवाह की गवाही, विरोधाभासी चिकित्सा साक्ष्यों पर तब तक प्रबल होगी जब तक कि प्रत्यक्षदर्शी का बयान पूरी तरह से अविश्वसनीय न पाया जाए।
अदालत ने दोषियों द्वारा दायर आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत उन्हें दी गई आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि की।

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 16 मार्च 2003 की सुबह लगभग 6:00 बजे की एक घटना से संबंधित है, जब सोलह अभियुक्तों ने पुराने विवाद के चलते मोहन कुमार नामक व्यक्ति पर कथित रूप से खतरनाक हथियारों से हमला किया था। जब उनकी पत्नी, श्रीमती अन्नपूर्णा (PW-1), उन्हें बचाने के लिए आईं, तो उन्हें भी गंभीर चोटें आईं।
घायलों को पहले गंडासी के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) ले जाया गया, जहाँ से उन्हें जिला अस्पताल रेफर कर दिया गया। हसन के जे.सी. अस्पताल में मोहन कुमार को मृत घोषित कर दिया गया। श्रीमती अन्नपूर्णा ने PHC में ही पुलिस को एक शिकायत दर्ज कराई, जिसके आधार पर प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई।
जांच के बाद, निचली अदालत ने सभी जीवित अभियुक्तों को सभी आरोपों से बरी कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ, कर्नाटक राज्य और सूचक (PW-1) ने हाईकोर्ट में अपील दायर की। हाईकोर्ट ने 29 अक्टूबर 2014 के अपने फैसले में, आठ अभियुक्तों की रिहाई की पुष्टि की, लेकिन सात अभियुक्तों को हत्या और अन्य अपराधों के लिए दोषी ठहराया। इसी दोषसिद्धि के खिलाफ अभियुक्तों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ताओं के वकील ने मुख्य रूप से यह तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते समय यह नहीं कहा कि बरी करने का दृष्टिकोण “संभावित दृष्टिकोण” नहीं था, जो कि बरी करने के फैसले को पलटने के लिए एक आवश्यक शर्त है। उन्होंने यह भी दलील दी कि घायल गवाह PW-1 की गवाही अविश्वसनीय थी क्योंकि यह मृत्यु के समय को लेकर मेडिकल साक्ष्य के विपरीत थी।
इसके विपरीत, कर्नाटक राज्य की ओर से पेश वकील ने कहा कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले में “स्पष्ट भ्रांतियों” और “विकृत निष्कर्षों” का विस्तृत विश्लेषण किया था। राज्य ने तर्क दिया कि एक घायल गवाह के बयान पर सही भरोसा किया गया था, क्योंकि उसकी चोटें निर्विवाद थीं और यह अकल्पनीय है कि कोई घायल महिला अपने पति के हत्यारों को छोड़कर निर्दोष लोगों को फंसाएगी।
अदालत का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्यों और निचले न्यायालयों के फैसलों की गहन समीक्षा की।
बरी करने के फैसले को पलटने पर: अदालत ने अपीलकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया कि हाईकोर्ट ने निचली अदालत के दृष्टिकोण को “असंभावित” नहीं बताया था। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने कहा, “भले ही हाईकोर्ट ने यह लिखने में चूक कर दी हो कि निचली अदालत द्वारा लिया गया दृष्टिकोण एक संभावित दृष्टिकोण नहीं हो सकता है, लेकिन इस आधार पर हाईकोर्ट के फैसले को गलत ठहराना अनुचित और अन्यायपूर्ण होगा।”
प्रत्यक्षदर्शी बनाम मेडिकल साक्ष्य: मामले का मुख्य बिंदु निचली अदालत का वह निर्णय था जिसमें PW-1 की गवाही को डॉक्टर के.के. हेब्बार (PW-17) के उस बयान के आधार पर खारिज कर दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि मौत सुबह 3:00 से 4:00 बजे के बीच हो सकती थी, जो PW-1 के 6:00 बजे की घटना के बयान के विपरीत था।
सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण मानते हुए कहा, “यह एक सुस्थापित सिद्धांत है कि यदि प्रत्यक्षदर्शी गवाही और मेडिकल साक्ष्य में कोई विरोधाभास है, तो प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य को ही वरीयता दी जाएगी, जब तक कि वह पूरी तरह से अविश्वसनीय न हो।”
बचाव पक्ष के सिद्धांत पर: अदालत ने निचली अदालत की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की कि उसने बचाव पक्ष के इस निराधार सिद्धांत पर भरोसा किया कि PW-1 के किसी अन्य गवाह के साथ अवैध संबंध थे और उसने अपने पति की हत्या की साजिश रची थी। अदालत ने पाया कि बचाव पक्ष ने PW-1 से जिरह के दौरान ऐसा कोई सवाल नहीं पूछा था।
हाईकोर्ट द्वारा अपनाए गए “संतुलित दृष्टिकोण” में हस्तक्षेप का कोई आधार न पाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि दोषसिद्धि उचित थी। पीठ ने फैसला सुनाया, “उपरोक्त सभी कारणों से, हम अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराने वाले हाईकोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं पाते हैं।”
अपीलों को खारिज कर दिया गया और अपीलकर्ताओं को कानून के अनुसार अपनी शेष सजा काटने का निर्देश दिया गया।