प्रशासनिक कार्रवाई को रद्द करने से आपराधिक कार्यवाही स्वतः रद्द नहीं हो जाती: सुप्रीम कोर्ट

एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सुप्रीम कोर्ट ने उन विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेशों को रद्द कर दिया है, जिन्होंने बैंकों द्वारा धोखाधड़ी घोषित किए गए खाताधारकों के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी (FIR) और आपराधिक कार्यवाहियों को निरस्त कर दिया था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि किसी प्रशासनिक कार्रवाई को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन के कारण निरस्त किया गया हो, तो भी समान तथ्यों के आधार पर चल रही आपराधिक कार्यवाही स्वतः शून्य नहीं होती।

यह निर्णय न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन बनाम सुरेंद्र पटवा एवं अन्य (क्रिमिनल अपील arising from SLP (Crl.) No. 7735 of 2024 एवं अन्य संबद्ध मामलों) में पारित किया।

पृष्ठभूमि

यह मामला भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 1 जुलाई 2016 को जारी ‘फ्रॉड्स – वर्गीकरण और रिपोर्टिंग’ संबंधी मास्टर निर्देशों के तहत बैंकों द्वारा की गई कार्रवाइयों से उत्पन्न हुआ। बैंकों ने इन निर्देशों के अनुपालन में कुछ उधारकर्ताओं के खातों को धोखाधड़ी घोषित किया और मामलों को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) अथवा राज्य पुलिस को सौंपते हुए आपराधिक कार्यवाही शुरू कर दी।

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प्रभावित उधारकर्ताओं ने विभिन्न उच्च न्यायालयों में इन कार्यवाहियों को चुनौती दी, जिनमें से कई ने न केवल प्रशासनिक कार्रवाइयों को बल्कि प्राथमिकी एवं आपराधिक कार्यवाहियों को भी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया एवं अन्य बनाम राजेश अग्रवाल एवं अन्य [(2023) 6 SCC 1] मामले पर निर्भर करते हुए, निरस्त कर दिया।

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उच्च न्यायालयों ने यह पाया कि खातों को धोखाधड़ी घोषित करने से पूर्व उधारकर्ताओं को सुनवाई का अवसर न देना Audi Alteram Partem के सिद्धांत का उल्लंघन था।

पक्षकारों की दलीलें

CBI की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल्स ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालयों ने प्रशासनिक और आपराधिक कार्यवाहियों को समान स्तर पर रखते हुए गलती की। उन्होंने कहा कि दोनों कार्यवाहियाँ अलग-अलग विधिक क्षेत्रों में संचालित होती हैं और राजेश अग्रवाल के मामले की गलत व्याख्या की गई।

उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कई मामलों में तो प्राथमिकी रद्द कर दी गई, जबकि न तो रद्दीकरण के लिए याचना की गई थी और न ही CBI को पक्षकार बनाकर सुना गया था।

वहीं, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि जब प्रशासनिक आधार ही प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन से दूषित हो गया था, तो उसके आधार पर शुरू हुई आपराधिक कार्यवाहियों को भी निरस्त करना उचित था।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

पीठ ने दोहराया कि प्रशासनिक और आपराधिक कार्यवाहियाँ अलग-अलग आधारों पर खड़ी होती हैं। न्यायालय ने कहा:

“केवल इस कारण कि तथ्य समान या मिलते-जुलते हैं, यह नहीं कहा जा सकता कि वैध प्रशासनिक कार्रवाई के अभाव में कोई संज्ञेय अपराध दर्ज नहीं किया जा सकता।”

न्यायालय ने राजेश अग्रवाल मामले के पैराग्राफ 98.1 का हवाला देते हुए स्पष्ट किया:

“FIR दर्ज करने से पहले किसी को सुनवाई का अवसर देना आवश्यक नहीं है।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के आधार पर प्रशासनिक कार्रवाइयों को रद्द करना समान तथ्यों पर आधारित आपराधिक कार्यवाहियों को रोकने का आधार नहीं बनता।

इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि यदि केवल प्रक्रियात्मक त्रुटियों के आधार पर प्रशासनिक कार्रवाई अमान्य घोषित की गई हो, तो प्राकृतिक न्याय का पालन करते हुए नई कार्रवाई की जा सकती है। इस संदर्भ में स्टेट बैंक ऑफ पटियाला बनाम एस.के. शर्मा [(1996) 3 SCC 364] तथा केनरा बैंक बनाम देबाशीष दास [(2003) 4 SCC 557] मामलों पर भरोसा किया गया।

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने CBI और बैंकों द्वारा दायर सभी अपीलों को स्वीकार कर लिया। न्यायालय द्वारा दिए गए प्रमुख निर्देश इस प्रकार हैं:

  • उच्च न्यायालयों द्वारा प्राथमिकी और आपराधिक कार्यवाहियाँ निरस्त करने वाले आदेशों को रद्द करना।
  • प्राथमिकी एवं आपराधिक मामलों को उनकी मूल स्थिति में पुनर्स्थापित करना।
  • मामलों को, सिवाय सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गए बिंदु के, गुण-दोष के आधार पर नए सिरे से विचार के लिए संबंधित उच्च न्यायालयों को पुनः भेजना।
  • जहां उच्च न्यायालयों द्वारा स्थगन आदेश पारित किए गए थे, वहां अंतरिम संरक्षण जारी रहना।
  • जहां पूर्व में कोई अंतरिम संरक्षण नहीं था, वहां प्रतिवादियों के विरुद्ध दो सप्ताह तक कोई दंडात्मक कार्रवाई न की जाए।
  • जहां जांच पूरी हो चुकी है, वहां गिरफ्तारी अथवा दंडात्मक कार्रवाई न हो।
  • जहां CBI को पूर्व में पक्षकार नहीं बनाया गया था, वहां पुनर्विचारित मामलों में उसका पक्षकार बनाना अनिवार्य किया गया।
  • उच्च न्यायालयों को निर्देश दिया गया कि वे चार माह के भीतर पुनर्विचारित मामलों का निपटारा करें।

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