राजस्थान हाईकोर्ट ने अनुबंध कानून के एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की पुष्टि करते हुए हाल ही में एक फैसले में कहा है कि मुख्तारनामे (Power of Attorney) के मालिक (Principal) की मृत्यु के साथ ही मुख्तारनामा स्वतः समाप्त हो जाता है। नतीजतन, मालिक की मृत्यु के बाद मुख्तारनामा धारक द्वारा संपत्ति की कोई भी बिक्री कानूनन शून्य है।
न्यायमूर्ति अनूप कुमार ढांड ने भूमि नामांतरण (mutation) को रद्द करने के फैसले को चुनौती देने वाली एक रिट याचिका को खारिज कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने राजस्व बोर्ड, संभागीय आयुक्त और तहसीलदार के फैसलों को बरकरार रखा। कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल एक ऐसे व्यक्ति की ओर से निष्पादित विक्रय पत्र (sale deed) की वैधता का था, जिसकी पहले ही मृत्यु हो चुकी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
विवाद का केंद्र एक कृषि भूमि थी, जिसके मूल सह-मालिक हीरा के पांच बेटे – ओंकार, रामा, सुखदेव, सुवा और पंचू थे। प्रत्येक के पास 1/5 का बराबर हिस्सा था। 22 सितंबर, 1988 को सभी पांच भाइयों ने संयुक्त रूप से एक चांदी राम के पक्ष में एक पंजीकृत मुख्तारनामा निष्पादित किया।

इसके बाद, भाइयों में से एक, पंचू का 16 अप्रैल, 1990 को निधन हो गया।
पंचू की मृत्यु के पांच साल से अधिक समय बाद, 9 जून, 1995 को मुख्तारनामा धारक चांदी राम ने एक पंजीकृत विक्रय पत्र के माध्यम से पूरी जमीन शारदा देवी और निर्मला देवी को बेच दी। इन व्यक्तियों ने बाद में 22 फरवरी, 2006 को वही जमीन याचिकाकर्ता श्रीमती कमला खिंची को बेच दी। इसी अंतिम विक्रय पत्र के आधार पर, भूमि का नामांतरण श्रीमती कमला खिंची के नाम पर दर्ज किया गया।
दिवंगत पंचू के कानूनी उत्तराधिकारियों (उनकी पत्नी श्रीमती कमला के नेतृत्व में) ने राजस्व प्रविष्टियों में सुधार की मांग करते हुए, तहसीलदार के समक्ष राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 136 के तहत एक आवेदन दायर करके कार्यवाही शुरू की। तहसीलदार ने 14 दिसंबर, 2017 को आवेदन को स्वीकार कर लिया और नामांतरण को सही कर दिया। याचिकाकर्ता द्वारा संभागीय आयुक्त और राजस्व बोर्ड में की गई अपीलें भी क्रमशः 7 दिसंबर, 2021 और 14 जनवरी, 2025 को खारिज कर दी गईं, जिसके बाद यह रिट याचिका हाईकोर्ट में दायर की गई।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील श्री संजय मेहरिश ने तर्क दिया कि तहसीलदार ने राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 136 का उल्लंघन करते हुए, एक अनिवार्य कारण बताओ नोटिस जारी किए बिना नामांतरण प्रविष्टियों को बदल दिया था। याचिकाकर्ता के वकील ने यह भी कहा कि प्रतिवादियों को विक्रय पत्र को रद्द कराने के लिए सिविल कोर्ट जाना चाहिए था या राजस्व न्यायालय में अधिनियम की धारा 188 के तहत मुकदमा दायर करना चाहिए था, और प्रविष्टियों में सुधार के लिए दिया गया आवेदन विचारणीय नहीं था।
इसके विपरीत, प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री आर.के. अग्रवाल ने तर्क दिया कि विक्रय पत्र पंचू के 1/5 हिस्से की सीमा तक शून्य था। उन्होंने कहा कि चूँकि पंचू की मृत्यु 1990 में हो गई थी, उनके द्वारा निष्पादित मुख्तारनामा समाप्त हो गया था। इसलिए, चांदी राम को 1995 में उनके हिस्से को बेचने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था। वकील ने भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 201 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि मालिक की मृत्यु से एजेंसी समाप्त हो जाती है।
कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति ढांड ने रिकॉर्ड का अवलोकन करने और दलीलों को सुनने के बाद याचिकाकर्ता के मामले में कोई दम नहीं पाया। कोर्ट ने इस निर्विवाद तथ्य पर ध्यान दिया कि पंचू की मृत्यु 16 अप्रैल, 1990 को हो गई थी, यानी मुख्तारनामा धारक द्वारा विक्रय पत्र निष्पादित किए जाने से लगभग पांच साल पहले।
हाईकोर्ट ने निचली अपीलीय अदालतों के निष्कर्षों की पुष्टि करते हुए कहा कि उन्होंने सही निष्कर्ष निकाला कि “पंचू के 1/5 हिस्से को मुख्तारनामा-धारक चांदी राम द्वारा उनकी मृत्यु के पांच साल बाद नहीं बेचा जा सकता था।”
अपने अंतिम फैसले में, कोर्ट ने निश्चित कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया: “यह कानून का स्थापित प्रस्ताव है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद, ऐसे व्यक्ति का मुख्तारनामा निष्पादन अधिनियम, 1872 की धारा 201 के संदर्भ में स्वतः समाप्त हो जाता है, इसलिए, इन परिस्थितियों में, याचिकाकर्ता के पक्ष में की गई राजस्व प्रविष्टियाँ टिकने योग्य नहीं थीं और उन्हें तहसीलदार द्वारा सही रूप से रद्द कर दिया गया है।”
अदालत ने आक्षेपित आदेशों में कोई त्रुटि न पाते हुए रिट याचिका खारिज कर दी। हालांकि, यह स्पष्ट किया गया कि यदि याचिकाकर्ता कानून के तहत उपलब्ध किसी अन्य उपाय का लाभ उठाती है तो इस फैसले में की गई टिप्पणियां उनके रास्ते में नहीं आएंगी।