अगर हम आरोपी को जेल भेजते हैं, तो सबसे अधिक कष्ट पीड़िता को ही होगा: सुप्रीम कोर्ट ने POCSO मामले में अनुच्छेद 142 का प्रयोग कर सजा देने से किया इनकार

23 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्जल भुइयाँ की पीठ ने POCSO अधिनियम के अंतर्गत दोषसिद्ध एक आरोपी को सजा देने से इनकार करते हुए संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग किया। न्यायालय ने कहा कि इस असाधारण परिस्थिति में “वास्तविक न्याय” के लिए वैधानिक न्यूनतम सजा से विचलन आवश्यक है क्योंकि पीड़िता, जो घटना के समय नाबालिग थी और अब आरोपी की पत्नी है, सजा होने की स्थिति में सबसे अधिक प्रभावित होगी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला स्वतः संज्ञान याचिका (Writ Petition (C) No. 3 of 2023) और राज्य बनाम आरोपी (Criminal Appeal No. 1451 of 2024, राज्य: पश्चिम बंगाल) से संबंधित है। इसमें कलकत्ता हाईकोर्ट के 18 अक्टूबर 2023 के उस फैसले को चुनौती दी गई थी जिसमें आरोपी को POCSO और IPC की गंभीर धाराओं से बरी कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने अनुच्छेद 226 और सीआरपीसी की धारा 482 का प्रयोग करते हुए यह निर्णय दिया था।

POCSO की विशेष अदालत ने पहले आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 6 और IPC की धारा 363, 366, 376(2)(n) और 376(3) के तहत दोषी ठहराते हुए 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट ने आरोपी और पीड़िता के साथ रहने और उनके माता-पिता बनने के आधार पर दोषसिद्धि रद्द कर दी थी।

20 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का फैसला रद्द करते हुए आरोपी को POCSO अधिनियम की धारा 6 और IPC की धारा 376(2)(n) व 376(3) में फिर से दोषी ठहराया, जबकि धारा 363 और 366 के तहत बरी करने को बरकरार रखा। सजा पर निर्णय बाद में विस्तृत जांच के आधार पर सुरक्षित रखा गया।

प्रणालीगत विफलताएँ और पीड़िता की स्थिति

न्यायालय ने पाया कि पीड़िता वर्ष 2018 में मात्र 14 वर्ष की थी जब वह आरोपी के साथ भाग गई थी। इसके बाद उसके माता-पिता ने उसे त्याग दिया। 2021 में आरोपी की गिरफ्तारी के बाद पीड़िता और उसका बच्चा असहाय अवस्था में रह गए।

कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता को लम्बे मुकदमे के कारण भावनात्मक, मानसिक और आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा। उस पर ₹2 लाख से अधिक का कर्ज था, जो अधिकतर कानूनी फीस और दलालों को भुगतान के कारण हुआ। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अब पीड़िता अपने जीवन को फिर से स्थापित कर चुकी है, अपने परिवार के प्रति समर्पित है और समाज की किशोर लड़कियों से जुड़कर सकारात्मक गतिविधियों में हिस्सा ले रही है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

कोर्ट ने कहा कि राज्य मशीनरी पीड़िता को सुरक्षा देने में असफल रही। न्यायालय ने कहा कि पीड़िता के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन हुआ क्योंकि POCSO अधिनियम और किशोर न्याय अधिनियम के कल्याणकारी प्रावधानों को लागू नहीं किया गया।

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न्यायालय ने टिप्पणी की:

“अब वह उस अवस्था में है जहाँ वह अपने पति को बचाने के लिए बेताब है। अब वह आरोपी के प्रति भावनात्मक रूप से समर्पित है और अपने छोटे परिवार के प्रति अत्यधिक संलग्न है… अगर हम आरोपी को जेल भेजते हैं, तो सबसे अधिक पीड़ा पीड़िता को ही होगी।”

कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि पीड़िता को जो सबसे गंभीर आघात पहुँचा, वह आरोपी का कृत्य नहीं बल्कि समाज की सोच, न्यायिक प्रणाली की जटिलता और माता-पिता की उपेक्षा थी।

अनुच्छेद 142 का प्रयोग और राहत

न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए कहा:

“यह मामला कोई मिसाल नहीं है और इसे मिसाल के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। यह हमारे समाज और न्याय प्रणाली की पूर्ण विफलता का प्रतीक है।”

कोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन आरोपी को कारावास नहीं देने का निर्देश दिया ताकि इस विशेष परिस्थिति में न्याय सुनिश्चित किया जा सके।

राज्य और केंद्र सरकार को निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल राज्य सरकार को पीड़िता और उसके बच्चे के दीर्घकालिक पुनर्वास के लिए विस्तृत निर्देश दिए:

  • कुछ महीनों में पूरे परिवार के लिए सुरक्षित आश्रय की व्यवस्था।
  • पीड़िता की स्नातक तक की शिक्षा और उसके बाद व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए पूरा खर्च।
  • बच्चे की 10वीं कक्षा तक की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का प्रबंध।
  • मिशन वात्सल्य योजना के अंतर्गत बच्चे को ₹4,000 प्रति माह की वित्तीय सहायता जब तक वह 18 वर्ष का न हो।
  • पीड़िता के कर्ज को एक बार की सहायता के रूप में चुकाने की व्यवस्था।
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इसके अलावा, केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को भी पक्षकार बनाया गया और निर्देश दिए गए कि एक समिति का गठन कर व्यापक सुधारों जैसे किशोरों की भलाई, यौन शिक्षा और POCSO अधिनियम के क्रियान्वयन की निगरानी हेतु रिपोर्ट प्रस्तुत की जाए।

पश्चिम बंगाल राज्य सरकार को 15 जुलाई 2025 तक अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करनी होगी। अगली सुनवाई 25 जुलाई 2025 को होगी जिसमें निर्देशों के पालन की समीक्षा की जाएगी। केंद्र सरकार को भी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर आधारित विस्तृत रिपोर्ट पेश करनी होगी।

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