PMLA | जहाँ वैधानिक विकल्प मौजूद हैं, वहां अनंतिम कुर्की आदेश (PAO) के खिलाफ रिट याचिका विचारणीय नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि यदि धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के तहत प्रभावी वैकल्पिक वैधानिक उपाय मौजूद हैं, तो संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अनंतिम कुर्की आदेश (Provisional Attachment Order – PAO) को चुनौती देने वाली रिट याचिका विचारणीय (maintainable) नहीं है।

जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट सट्टेबाजी रैकेट के सिलसिले में प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा शुरू की गई कार्यवाही को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह को खारिज कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि PMLA अपने आप में एक “पूर्ण और व्यापक कानून” (self-contained code) है, जिसमें न्यायनिर्णयन का पूरा ढांचा मौजूद है। कोर्ट ने कहा कि इस प्रक्रिया को दरकिनार कर सीधे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

कोर्ट ने मुकेश कुमार, नरेश बंसल और अन्य द्वारा दायर रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें PMLA की धारा 5(1) के तहत जारी PAO और धारा 8 के तहत जारी कारण बताओ नोटिस (SCN) को चुनौती दी गई थी। पीठ ने ED की इस प्रारंभिक आपत्ति को स्वीकार किया कि याचिकाकर्ता कोई भी ऐसी असाधारण परिस्थिति (जैसे मौलिक अधिकारों का हनन या प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन) साबित करने में विफल रहे हैं, जिसके आधार पर रिट अधिकार क्षेत्र का प्रयोग किया जा सके। इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह भी पुष्टि की कि अनुसूचित अपराधों (scheduled offences) के माध्यम से सुगम बनाई गई ‘डाउनस्ट्रीम गतिविधियों’ से प्राप्त लाभ भी “अपराध से हुई आय” (Proceeds of Crime) की श्रेणी में आते हैं।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला “Betfair.com” वेबसाइट के माध्यम से चलाए जा रहे एक बड़े पैमाने के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट सट्टेबाजी रैकेट की जांच से जुड़ा है। आरोप है कि यह ऑपरेशन वडोदरा से गिरीश पुरुषोत्तम पटेल उर्फ टॉमी पटेल द्वारा चलाया जा रहा था।

मई 2015 में, ED ने विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (FEMA) के तहत तलाशी ली और बाद में वडोदरा पुलिस द्वारा दर्ज एक FIR (I-CR No. 85/2015) के आधार पर प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट (ECIR) दर्ज की। पुलिस FIR में IPC की धारा 418, 419, 420, 465, 467, 468, 471 और 120-B के तहत आरोप लगाए गए थे।

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जांच में सामने आया कि याचिकाकर्ता मुकेश कुमार ने सट्टेबाजी वेबसाइट के लिए अनाधिकृत चैनलों के माध्यम से लगभग 2.4 करोड़ रुपये प्रति आईडी की दर से “सुपर मास्टर लॉगइन आईडी” (Super Master Login IDs) खरीदे थे। ये आईडी बिना किसी केवाईसी (KYC) मानदंडों के वितरित किए गए थे। आरोप है कि फर्म “मारुति अहमदाबाद” ने अपराध से लगभग 2,400 करोड़ रुपये की आय अर्जित की। इसके बाद, ED ने 10 सितंबर 2015 को लगभग 20 करोड़ रुपये की संपत्ति कुर्क करते हुए एक PAO जारी किया।

पक्षकारों की दलीलें

  • प्रवर्तन निदेशालय (ED): विशेष वकील अनुपम एस. शर्मा ने प्रारंभिक आपत्ति उठाई कि चूंकि वैकल्पिक वैधानिक उपाय उपलब्ध हैं, इसलिए याचिकाएं विचारणीय नहीं हैं। उन्होंने तर्क दिया कि PAO को पहले PMLA की धारा 8 के तहत न्यायनिर्णायक प्राधिकरण (Adjudicating Authority) के समक्ष चुनौती दी जानी चाहिए, जिसके बाद धारा 26 के तहत अपीलीय न्यायाधिकरण और अंत में धारा 42 के तहत हाईकोर्ट में अपील का प्रावधान है।
  • याचिकाकर्ता: याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि PAO और SCN बिना किसी वैध “विश्वास के कारण” (reason to believe) के जारी किए गए थे। उन्होंने यह भी दलील दी कि न्यायनिर्णायक प्राधिकरण केवल एक सदस्य के साथ कार्य कर रहा था, इसलिए यह coram non-judice (अधिकार क्षेत्र से बाहर) था।

कोर्ट का विश्लेषण

1. याचिका की पोषणीयता और PMLA का स्वरूप

कोर्ट ने डायरेक्टरेट ऑफ एनफोर्समेंट बनाम मैसर्स प्रकाश इंडस्ट्रीज लिमिटेड (2025) और सुप्रीम कोर्ट के व्हर्लपूल कॉरपोरेशन फैसले का हवाला देते हुए ED की आपत्ति को स्वीकार कर लिया।

पीठ ने दोहराया कि अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र एक असाधारण उपाय है जिसे केवल तीन स्थितियों में ही लागू किया जाना चाहिए:

  1. मौलिक अधिकारों का प्रवर्तन।
  2. प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों का उल्लंघन।
  3. जहां आदेश या कार्यवाही पूरी तरह से अधिकार क्षेत्र से बाहर हो या अधिनियम की वैधता को चुनौती दी गई हो।
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कोर्ट ने कहा कि PMLA एक “मजबूत और बहु-स्तरीय तंत्र” प्रदान करता है जो हर चरण पर सुनवाई का अधिकार सुनिश्चित करता है। चूंकि कानून में न्यायनिर्णायक प्राधिकरण, अपीलीय न्यायाधिकरण और धारा 42 अपील का पदानुक्रम मौजूद है, इसलिए इन उपायों को नजरअंदाज करना अनुचित है।

कोर्ट ने टिप्पणी की:

“हर दूसरे मौके पर PAO की वैधता को चुनौती देने के लिए अनुच्छेद 226 के तहत असाधारण रिट अधिकार क्षेत्र का सहारा लेने की बार-बार की जाने वाली प्रथा पूरी तरह से अनुचित है और यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग है… इस कोर्ट का संवैधानिक अधिकार क्षेत्र, हालांकि व्यापक और शक्तिशाली है, लेकिन इसका उद्देश्य PMLA के तहत परिकल्पित विशेष वैधानिक तंत्र को प्रतिस्थापित करना नहीं है।”

2. एकल सदस्यीय न्यायनिर्णायक प्राधिकरण

कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया कि न्यायनिर्णायक प्राधिकरण (Adjudicating Authority) coram non-judice था क्योंकि यह एक सदस्य के साथ कार्य कर रहा था। PMLA की धारा 6 की व्याख्या करते हुए, पीठ ने कहा कि कानून “कार्यात्मक लचीलापन” (functional flexibility) प्रदान करता है। तेलंगाना हाईकोर्ट के फैसले (एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट बनाम कार्वी इंडिया रियलिटी लिमिटेड) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अध्यक्ष के पास एक या दो सदस्यों की बेंच गठित करने की शक्ति है, और सभी मामलों के लिए तीन सदस्यों की संरचना अनिवार्य नहीं है।

3. “विश्वास का कारण” और अपराध से हुई आय (Proceeds of Crime)

हालांकि कोर्ट ने याचिकाओं को विचारणीय नहीं माना, फिर भी किसी क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि की जांच के लिए गुणों-दोषों पर संक्षेप में विचार किया गया।

  • विश्वास का कारण (Reason to Believe): कोर्ट ने पाया कि नामित अधिकारी ने “विश्वास का कारण” बनाने के लिए FIR, चार्जशीट और बैंक विवरण सहित पर्याप्त सामग्री पर भरोसा किया था, जो केवल संदेह पर आधारित नहीं था।
  • अपराध से हुई आय: इस तर्क को संबोधित करते हुए कि ‘सट्टेबाजी’ एक अनुसूचित अपराध (Scheduled Offence) नहीं है, कोर्ट ने कहा कि “सुपर मास्टर लॉगइन आईडी” जालसाजी और धोखाधड़ी जैसे अनुसूचित अपराधों के माध्यम से प्राप्त किए गए थे। इसलिए, इन आईडी का उपयोग करके डाउनस्ट्रीम गतिविधि (सट्टेबाजी) से उत्पन्न लाभ “अपराध से हुई आय” का गठन करते हैं। कोर्ट ने इसे “विषाक्त वृक्ष का फल” (Fruit of a poisoned tree) करार दिया।
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4. पूर्व कुर्की के बिना कारण बताओ नोटिस (SCN)

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि PMLA की धारा 8(1) के तहत, कारण बताओ नोटिस जारी किया जा सकता है यदि प्राधिकरण का मानना है कि व्यक्ति के पास अपराध की आय है या उसने कोई अपराध किया है। कोर्ट ने कहा:

“PMLA की धारा 5 के तहत कुर्की की अनुपस्थिति SCN को अमान्य नहीं कर सकती, क्योंकि यह कोई अधिकार क्षेत्र की पूर्व-शर्त (jurisdictional pre-requisite) नहीं है।”

निर्णय

दिल्ली हाईकोर्ट ने यह कहते हुए रिट याचिकाएं खारिज कर दीं कि उनमें कोई दम नहीं है और याचिकाकर्ताओं को PMLA के तहत प्रदान किए गए वैधानिक मंचों के समक्ष अपने उपचार की तलाश करनी चाहिए।

केस विवरण:

  • केस शीर्षक: नरेश बंसल और अन्य बनाम एडजुडिकेटिंग अथॉरिटी और अन्य (तथा अन्य संबंधित मामले)
  • केस नंबर: W.P.(C) 11361/2015
  • पीठ: जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर

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