सुप्रीम कोर्ट ने सिविल प्रक्रिया पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि यदि किसी वादपत्र (Plaint) में मांगी गई कई राहतों में से कोई एक भी राहत सुनवाई योग्य है, तो पूरे वादपत्र को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VII नियम 11 के तहत खारिज नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने तेलंगाना हाईकोर्ट और निचली अदालत के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिन्होंने विनिर्दिष्ट पालन (Specific Performance) के एक मुकदमे को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया था।
अदालत ने श्री बोयेनेपल्ली श्रीजयवर्धन द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए उनके मुकदमे को सुनवाई के लिए बहाल कर दिया और आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत जांच के दायरे को स्पष्ट किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 23 अगस्त, 2018 को अपीलकर्ता श्री बोयेनेपल्ली श्रीजयवर्धन और प्रतिवादी संख्या 1 (प्रतिवादी संख्या 6) के बीच हुए एक बिक्री समझौते (Agreement to Sell) से उत्पन्न हुआ था। यह समझौता तेलंगाना के रंगारेड्डी जिले में स्थित कृषि भूमि के दो टुकड़ों के लिए 4 करोड़ रुपये में हुआ था। अपीलकर्ता ने बयाना राशि के तौर पर कुल 12 लाख रुपये का भुगतान किश्तों में चेक के माध्यम से किया था।

फैसले में यह उल्लेख किया गया है कि समझौते में शेष राशि के भुगतान के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं थी। जब अपीलकर्ता ने 18 मई, 2023 को एक नोटिस भेजकर विक्रेता को बिक्री विलेख (Sale Deed) निष्पादित करने के लिए कहा, तो उन्हें एक नए घटनाक्रम का पता चला। विक्रेता ने 2 जनवरी, 2023 को अन्य पक्षों (प्रतिवादी संख्या 1 से 5 और एक अन्य प्रतिवादी) के साथ दो अलग-अलग निषेधाज्ञा मुकदमों (O.S. No. 42 and 43 of 2014) में एक समझौता डिक्री (Compromise Decree) कर ली थी। ये मुकदमे बिक्री समझौते से पहले से ही लंबित थे। इस समझौता डिक्री के माध्यम से संपत्ति का मालिकाना हक प्रभावी रूप से इन तीसरे पक्षों को हस्तांतरित कर दिया गया था।
इसके बाद, अपीलकर्ता ने 2018 के समझौते के विनिर्दिष्ट पालन के लिए एक मुकदमा (O.S. No. 414 of 2023) दायर किया, जिसमें मूल विक्रेता और समझौता डिक्री के लाभार्थियों, दोनों को पक्षकार बनाया गया। अपने मुकदमे में, अपीलकर्ता ने प्रतिवादियों को बिक्री विलेख निष्पादित करने, कब्जा सौंपने और समझौता डिक्री को रद्द करने की भी प्रार्थना की।
दलीलें और निचली अदालतों के फैसले
प्रतिवादी संख्या 1 से 5 ने सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत वादपत्र को खारिज करने के लिए एक आवेदन दायर किया। उनकी मुख्य दलीलें थीं कि उनके और अपीलकर्ता के बीच कोई संविदात्मक संबंध (Privity of Contract) नहीं था, और एक समझौता डिक्री को रद्द करने के लिए एक अलग मुकदमा सीपीसी के आदेश XXIII नियम 3A के तहत वर्जित था।
ट्रायल कोर्ट ने 30 अक्टूबर, 2023 के अपने आदेश द्वारा आवेदन को स्वीकार कर लिया और यह पाते हुए वादपत्र को खारिज कर दिया कि इसमें मांगी गई राहतों की पोषणीयता (Maintainability) के बारे में पर्याप्त दलीलें नहीं थीं।
अपीलकर्ता ने इस आदेश को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने 10 जनवरी, 2025 के अपने फैसले में अपील खारिज कर दी। हालांकि हाईकोर्ट ने यह माना कि ट्रायल कोर्ट के तर्क “उचित” नहीं थे, उसने अपने स्वयं के आधार पर वादपत्र को खारिज करने के फैसले को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यह मुकदमा विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 19 और सीपीसी के आदेश XXIII नियम 3A द्वारा वर्जित था, और वादपत्र में प्रतिवादी संख्या 2 से 6 के खिलाफ कोई वाद हेतुक (Cause of Action) प्रकट नहीं होता था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट निचली अदालतों के निष्कर्षों से असहमत था। पीठ ने पाया कि मुकदमे में मूल विक्रेता (प्रतिवादी संख्या 6) के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन के लिए एक स्पष्ट वाद हेतुक मौजूद था, जो अन्य प्रतिवादियों के खिलाफ दावों से स्वतंत्र था।
अदालत ने माना कि भले ही समझौता डिक्री को रद्द करने की राहत विवादास्पद हो, विक्रेता के खिलाफ विनिर्दिष्ट पालन के मुकदमे पर सुनवाई हो सकती थी। इसके अलावा, अदालत ने यह भी कहा कि पूरे वादपत्र को खारिज करके, अपीलकर्ता को बयाना राशि की वापसी के अपने वैकल्पिक अधिकार से भी वंचित कर दिया गया था।
पीठ ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि समझौता डिक्री उन मुकदमों से उत्पन्न हुई थी जो शुरू में केवल स्थायी निषेधाज्ञा के लिए दायर किए गए थे, न कि मालिकाना हक की घोषणा के लिए। अदालत ने दोहराया कि एक वादपत्र को आंशिक रूप से खारिज नहीं किया जा सकता है। न्यायमूर्ति मेहता ने आदेश लिखते हुए कहा, “यह एक सुस्थापित कानूनी सिद्धांत है कि जहां वादपत्र में दावा की गई कई राहतों में से, वादी किसी एक के लिए भी हकदार पाया जाता है, तो वादपत्र को आदेश VII नियम 11 सीपीसी के तहत खारिज नहीं किया जा सकता है।”
अदालत ने इस सिद्धांत को रेखांकित करने के लिए सेजल ग्लास लिमिटेड बनाम नविलन मर्चेंट्स प्राइवेट लिमिटेड और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया व अन्य बनाम श्रीमती प्रभा जैन व अन्य में अपने पिछले फैसलों का हवाला दिया।
अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट ने गलती की थी। अपील स्वीकार कर ली गई, विवादित आदेशों को रद्द कर दिया गया, और ट्रायल कोर्ट को कानून के अनुसार मुकदमे की सुनवाई के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया गया।