मद्रास हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि किसी सार्वजनिक आपातस्थिति या सार्वजनिक सुरक्षा के खतरे के अभाव में फोन टैपिंग करना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त निजता के अधिकार का उल्लंघन है। यह फैसला न्यायमूर्ति एन. आनंद वेंकटेश ने रिट याचिका संख्या 143/2018 में सुनाया, जो याचिकाकर्ता पी. किशोर द्वारा भारत सरकार के एक फोन इंटरसेप्शन आदेश को चुनौती देते हुए दायर की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
पी. किशोर, जो उस समय एवरॉन एजुकेशन लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर थे, ने 12 अगस्त 2011 को भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दी, जिसके तहत उनके मोबाइल फोन की निगरानी (फोन टैपिंग) की अनुमति दी गई थी। यह आदेश सार्वजनिक सुरक्षा और कानून-व्यवस्था की रक्षा के नाम पर जारी किया गया था।
इसके बाद केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने याचिकाकर्ता और अन्य लोगों के विरुद्ध एक प्राथमिकी दर्ज की, जिसमें एक आयकर विभाग के अतिरिक्त आयुक्त पर एवरॉन एजुकेशन लिमिटेड को कर से बचाने के लिए ₹50 लाख की रिश्वत मांगने का आरोप था।

CBI ने ₹50 लाख नकद राशि एक सीबीआई जाल में पकड़ी, हालांकि अदालत में यह स्पष्ट किया गया कि न तो याचिकाकर्ता घटनास्थल पर मौजूद थे, और न ही यह धनराशि उनसे बरामद की गई।
कानूनी तर्क
याचिकाकर्ता की ओर से दलील दी गई कि टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2) और टेलीग्राफ नियमावली के नियम 419-ए के तहत दिए गए आदेश के लिए जिन शर्तों का पालन आवश्यक है, उनका पूरी तरह उल्लंघन किया गया है। यह भी कहा गया कि न तो कोई “सार्वजनिक आपातस्थिति” थी और न ही “सार्वजनिक सुरक्षा” को कोई प्रत्यक्ष खतरा था — जो कि इस प्रकार की निगरानी के लिए अनिवार्य आधार हैं।
याचिकाकर्ता ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ और के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ जैसे उच्चतम न्यायालय के निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार माना गया है।
अदालत के अवलोकन
न्यायालय ने विस्तारपूर्वक निजता के अधिकार के ऐतिहासिक और संवैधानिक विकास का विश्लेषण किया। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति एन. आनंद वेंकटेश ने कहा:
“फोन टैपिंग, तब तक संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन मानी जाएगी जब तक उसे किसी वैधानिक प्रक्रिया के तहत वैध नहीं ठहराया गया हो।”
अदालत ने कहा कि सरकार द्वारा पारित फोन टैपिंग आदेश में “सार्वजनिक आपातस्थिति” या “सार्वजनिक सुरक्षा” का कोई ठोस आधार नहीं था, जो कि टेलीग्राफ अधिनियम की धारा 5(2) के तहत अनिवार्य हैं।
“न तो सार्वजनिक आपातस्थिति और न ही सार्वजनिक सुरक्षा कोई गोपनीय या छुपी हुई स्थिति होती है; ये दोनों परिस्थितियां किसी भी समझदार व्यक्ति को स्पष्ट रूप से दिखाई देनी चाहिए।”
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने पाया कि आदेश में केवल अधिनियम की भाषा को यांत्रिक रूप से दोहराया गया था और स्वतंत्र विवेक या उचित कारणों का कोई उल्लेख नहीं था।
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि टेलीग्राफ नियमों के नियम 419-ए के तहत अनिवार्य समीक्षा समिति की अनुमति नहीं ली गई थी, जिससे यह आदेश प्रक्रिया में भी त्रुटिपूर्ण पाया गया।
न्यायालय का निर्णय
मद्रास हाईकोर्ट ने 12 अगस्त 2011 को जारी इंटरसेप्शन आदेश को रद्द करते हुए कहा कि यह आदेश न तो वैधानिक प्रावधानों के अनुरूप था और न ही आवश्यक प्रक्रिया का पालन किया गया था, अतः यह असंवैधानिक है।
“चूंकि यह आदेश टेलीग्राफ अधिनियम की धारा 5(2) और टेलीग्राफ नियमों के नियम 419-ए के तहत निर्धारित प्रक्रियात्मक और वैधानिक शर्तों को पूरा नहीं करता, अतः यह अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।”
मामला: पी. किशोर बनाम भारत सरकार व अन्य
मामला संख्या: रिट याचिका संख्या 143/2018