कोई वैध सबूत नहीं, तो बर्खास्तगी नहीं—लापरवाही से की गई विभागीय जांच में पुनर्विचार की अनुमति नहीं: पटना हाई कोर्ट

पटना हाई कोर्ट ने हाल ही में बिहार राज्य एवं अन्य बनाम विकास कुमार @ विकास कुमार (एलपीए संख्या 446/2024) मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। यह मामला बिहार मिलिट्री पुलिस, जिसे अब बिहार स्पेशल आर्म्ड पुलिस कहा जाता है, के एक कांस्टेबल की बर्खास्तगी से संबंधित था। कांस्टेबल विकास कुमार को एक महिला प्रोबेशनरी कांस्टेबल के साथ जन्मदिन मनाने के आरोप में कदाचार का दोषी ठहराते हुए सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।

विकास कुमार ने इस बर्खास्तगी को सिविल रिट क्षेत्राधिकार मामले संख्या 2546/2023 में चुनौती दी थी। पटना हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश ने इस बर्खास्तगी आदेश को रद्द कर दिया, क्योंकि जांच में वैध सबूतों की कमी थी। बिहार राज्य ने इस फैसले से असंतुष्ट होकर पटना हाई कोर्ट के डिवीजन बेंच में अपील दायर की।

महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे:

1. विभागीय जांच में सबूतों की वैधता: प्रमुख कानूनी मुद्दा यह था कि क्या विकास कुमार की बर्खास्तगी वैध और स्वीकार्य सबूतों पर आधारित थी। कोर्ट को यह तय करना था कि क्या विभाग द्वारा की गई जांच कानूनी मानकों का पालन करती है, विशेष रूप से सबूतों की प्रस्तुति और विचार के संबंध में।

2. अनुशासनात्मक कार्यवाही में पुनर्विचार का दायरा: एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या मामले में नए सबूत पेश करने के लिए पुनर्विचार की आवश्यकता थी, जैसा कि राज्य के वकील ने तर्क दिया था, या क्या बर्खास्तगी को वैध सबूतों की कमी के कारण पूरी तरह से खारिज कर दिया जाना चाहिए।

कोर्ट का कानूनी मुद्दों पर निर्णय:

मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति पार्थ सारथी की पीठ ने एकल न्यायाधीश के फैसले को बरकरार रखते हुए बिहार राज्य द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:

– वैध सबूतों की कमी: कोर्ट ने जोर देकर कहा कि विभागीय जांच में वैध सबूतों की कमी थी। प्रस्तुत की गई गवाही केवल उन अधिकारियों की थी जिन्होंने प्रारंभिक जांच की थी। उनकी गवाही सुनवाई कहानियों पर आधारित थी, और वास्तविक प्रत्यक्षदर्शियों को जांच अधिकारी के सामने नहीं बुलाया गया था। कोर्ट ने पाया कि यह विकास कुमार की बर्खास्तगी को बनाए रखने के लिए अपर्याप्त था।

– पुनर्विचार की कोई गुंजाइश नहीं: कोर्ट ने राज्य की पुनर्विचार की अपील को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि ऐसे मामलों में पुनर्विचार की अनुमति देना अनुशासनात्मक प्राधिकारी की लापरवाही को बढ़ावा देना होगा। कोर्ट ने नोट किया कि पुनर्विचार केवल उन्हीं मामलों में उपयुक्त है जहां कोई तकनीकी दोष हुआ हो, न कि जहां जांच स्वयं बिना उचित सबूत के लापरवाही से की गई हो।

– अनुशासनात्मक कार्यवाही में सबूतों का मानक: न्यायालय ने इस सिद्धांत को दोहराया कि जबकि अनुशासनात्मक कार्यवाही में सबूतों का मानक संभाव्यता का संतुलन है, इस मानक को किसी भी वैध सबूत की अनुपस्थिति में पूरा नहीं किया जा सकता।

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कोर्ट की मुख्य टिप्पणियां:

कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पी. गुणशेखरन (2015) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “यदि हर उस मामले में जहां जांच कार्यवाही में कोई वैध सबूत नहीं पेश किया गया है, पुनर्विचार किया जाता है, तो यह प्रबंधन/अनुशासनात्मक प्राधिकारी की लापरवाही को प्रोत्साहित करेगा।”

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