ओडिशा हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि पुलिस डॉग की सूंघने की क्षमता पर आधारित ट्रैकिंग को तब तक साक्ष्य नहीं माना जा सकता जब तक उसे स्वतंत्र और वैज्ञानिक सबूतों से समर्थन न मिले। कोर्ट ने वर्ष 2003 में एक नाबालिग बच्ची के अपहरण, बलात्कार और हत्या के मामले में दो आरोपियों की रिहाई को चुनौती देने वाली राज्य सरकार की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि “पुलिस डॉग एक गवाह नहीं है” और “उसके हैंडलर की गवाही अदालत में सुनवाई योग्य नहीं जब तक अन्य प्रमाण नहीं हों।”
यह निर्णय न्यायमूर्ति चित्तंजन दाश और न्यायमूर्ति बी.पी. राउत्रे की खंडपीठ ने 26 मार्च 2025 को क्रिमिनल लीव टू अपील संख्या 53/2006 में सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 1 मई 2003 को भुवनेश्वर के गंगेश्वरपुर सासान गांव में घटित हुआ था, जब एक शिव मंदिर में आयोजित ‘प्रतिष्ठा यज्ञ’ के दौरान एक नाबालिग बच्ची लापता हो गई। अगली सुबह उसकी लाश एक सूखे तालाब में मिली, जिस पर चोट और यौन हमले के चिन्ह पाए गए।

पुलिस ने लिंगराज थाना कांड संख्या 76/2003 के तहत IPC की धाराएं 364, 376(2)(f), 302 और 34 के अंतर्गत मामला दर्ज किया। दो ग्रामीणों—उत्तरदाता संख्या 1 (पीकेडी) और उत्तरदाता संख्या 2—को गिरफ्तार कर ट्रायल में पेश किया गया। 7 जनवरी 2005 को ट्रायल कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया, जिसके विरुद्ध राज्य सरकार ने यह याचिका दाखिल की।
महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे
- क्या पुलिस डॉग द्वारा घटना स्थल से उत्तरदाता संख्या 1 की दुकान तक की गई ट्रैकिंग को दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सबूत माना जा सकता है?
- क्या “अंतिम बार साथ देखे जाने का सिद्धांत”, पिछली कथित गलत हरकतें, और संदेहास्पद व्यवहार, अभियुक्तों के खिलाफ अपरिहार्य साक्ष्य श्रृंखला बनाते हैं?
कोर्ट के महत्वपूर्ण अवलोकन
पुलिस डॉग की गवाही पर, कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा:
“…चूंकि कुत्ता कोर्ट में गवाही नहीं दे सकता, उसके हैंडलर को उसके व्यवहार की जानकारी देनी होती है। यह सुनी-सुनाई बात (hearsay) बन जाती है, क्योंकि हैंडलर केवल कुत्ते की प्रतिक्रिया की व्याख्या करता है, न कि प्रत्यक्ष साक्ष्य देता है। कुत्ता केवल एक ‘ट्रैकिंग उपकरण’ है, गवाह नहीं। इस मामले में बिना पुष्टिकरण के पुलिस डॉग की गवाही अविश्वसनीय है।”
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्णय अब्दुल रजाक मुर्तजा दाफेदार बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1970 SC 283) का हवाला देते हुए कहा:
“ऐसे साक्ष्य को लेकर तीन आपत्तियाँ होती हैं… पहली यह कि कुत्ता खुद गवाही नहीं दे सकता… उसका मानव साथी कोर्ट में जाकर उसकी प्रतिक्रिया की रिपोर्ट देता है, जो स्पष्ट रूप से सुनवाई योग्य नहीं है।”
“अंतिम बार साथ देखे जाने” संबंधी गवाह (PW-2) के बयान को कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसने खुद स्वीकार किया कि अंधेरे के कारण वह किसी को ठीक से देख नहीं पाया। वह गवाह अंततः मुख्य अभियोजन गवाह होते हुए भी hostile हो गया।
पूर्व यौन दुर्व्यवहार के आरोप (PW-8 के बयान के आधार पर) को कोर्ट ने अविश्वसनीय बताते हुए कहा:
“सिर्फ गांव की अफवाहें या पुराने आरोप, जिन पर कोई आपराधिक मामला नहीं चला, वे वर्तमान अपराध में दोष सिद्ध करने के लिए उपयोग नहीं किए जा सकते।”
कोर्ट ने अभियुक्त की घटना के बाद की कथित संदेहास्पद गतिविधियों, जैसे दुकान खोलना या गलत सामान देना, को भी अपर्याप्त माना:
“किसी भी त्रासदी पर इंसान की प्रतिक्रिया अलग-अलग हो सकती है। इसे अपराधबोध का प्रमाण नहीं माना जा सकता, खासकर जब अभियुक्त के नशे की लत पहले से प्रमाणित हो।”
कोर्ट का निर्णय
सभी तथ्यों और परिस्थितियों की गहन समीक्षा के बाद, हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य:
- कोई अखंड और मजबूत श्रृंखला नहीं बनाते जो अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त हो,
- ना ही कोई फॉरेंसिक या वैज्ञानिक प्रमाण अभियुक्तों को अपराध से जोड़ते हैं।
कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा:
“संदेह चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, वह कानूनी प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता।”
अतः कोर्ट ने राज्य सरकार की याचिका खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट का रिहाई का फैसला बरकरार रखा।
मामले का विवरण
- मामले का शीर्षक: State of Odisha v. PKD & Anr.
- मामला संख्या: CRLLP No. 53 of 2006 (S.T. No. 30/292 of 2003 से संबंधित)
- पीठ: न्यायमूर्ति चित्तंजन दाश और न्यायमूर्ति बी.पी. राउत्रे
- वकील:
- राज्य की ओर से: श्री एस.बी. मोहंती, अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता
- उत्तरदाता संख्या 1 की ओर से: श्रीमती ए. मिश्रा
- उत्तरदाता संख्या 2 की ओर से: श्री पी. जेना
- राज्य की ओर से: श्री एस.बी. मोहंती, अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता