मणिपुर हाईकोर्ट ने परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act), 1881 पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि धारा 139 के तहत यह वैधानिक अनुमान कि चेक किसी कर्ज या देनदारी के लिए जारी किया गया था, तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि शिकायतकर्ता पहले कानूनी रूप से वसूली योग्य कर्ज के अस्तित्व को स्थापित न कर दे। चेक बाउंस के एक मामले में आरोपी की दोषमुक्ति को बरकरार रखते हुए, अदालत ने स्पष्ट किया कि आरोपी द्वारा चेक पर केवल अपने हस्ताक्षर स्वीकार कर लेना इस अनुमान को आकर्षित करने के लिए अपर्याप्त है।
यह फैसला न्यायमूर्ति ए. गुनेश्वर शर्मा ने श्री मनोज कुमार जैन द्वारा दायर एक आपराधिक अपील में सुनाया, जिसमें उन्होंने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, इम्फाल पश्चिम द्वारा श्री महेंद्र कुमार जैन को बरी किए जाने को चुनौती दी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद अपीलकर्ता श्री मनोज कुमार जैन और प्रतिवादी श्री महेंद्र कुमार जैन के बीच एक असफल भूमि सौदे से उत्पन्न हुआ। अपीलकर्ता के अनुसार, उन्होंने जमीन खरीदने के लिए दिसंबर 2015 में प्रतिवादी को चेक के माध्यम से 1.8 करोड़ रुपये और नकद 24 लाख रुपये दिए थे।

बाद में, भूमि सौदा रद्द हो गया। जबकि प्रतिवादी ने चेक द्वारा भुगतान की गई 1.8 करोड़ रुपये की राशि वापस कर दी, उन्होंने कथित तौर पर नकद राशि वापस करने के लिए 11.12.2017 की तारीख का 24 लाख रुपये का एक चेक (नंबर 302992) जारी किया।
अपीलकर्ता ने इस चेक को 18.01.2018 को भुगतान के लिए प्रस्तुत किया, लेकिन भारतीय स्टेट बैंक ने इसे “अपर्याप्त धनराशि” (Insufficient Funds) की टिप्पणी के साथ अस्वीकार कर दिया। इसके बाद, अपीलकर्ता ने 24.01.2018 को एक कानूनी नोटिस भेजा, जो प्रतिवादी को प्राप्त हुआ। जब प्रतिवादी निर्धारित 15-दिन की अवधि के भीतर राशि का भुगतान करने में विफल रहा, तो अपीलकर्ता ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।
04.03.2023 को, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, इम्फाल पश्चिम ने प्रतिवादी को यह निष्कर्ष निकालते हुए बरी कर दिया कि शिकायतकर्ता “किसी भी कानूनी रूप से लागू करने योग्य कर्ज या अन्य देनदारियों के अस्तित्व को स्थापित नहीं कर सका और शिकायतकर्ता पर डाले गए शुरुआती बोझ का निर्वहन करने में बुरी तरह विफल रहा।” इस दोषमुक्ति को अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी थी।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ता के तर्क: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत अनुमान को लागू न करके गलती की, जो यह मानता है कि चेक कर्ज के निर्वहन के लिए जारी किया गया था। यह दलील दी गई कि एक बार जब प्रतिवादी ने चेक पर अपने हस्ताक्षर स्वीकार कर लिए, तो कर्ज के अस्तित्व को गलत साबित करने का भार उस पर स्थानांतरित हो गया, जिसमें वह विफल रहा। अपीलकर्ता के वकील ने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रतिवादी के चेक खो जाने के दावे का समर्थन किसी एफआईआर या बैंक में औपचारिक शिकायत से नहीं किया गया था।
प्रतिवादी के तर्क: प्रतिवादी के वकील ने कहा कि उन्हें अपीलकर्ता से कभी भी 24 लाख रुपये नकद नहीं मिले और इसलिए, उन्होंने विचाराधीन चेक कभी जारी नहीं किया। उन्होंने दावा किया कि उक्त चेक वाली चेक बुक उनके कार्यालय से गायब हो गई थी, और उन्होंने इस मामले की मौखिक रूप से अपने बैंक प्रबंधक को सूचना दी थी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
निचली अदालत के रिकॉर्ड, सबूतों और कानूनी मिसालों की गहन समीक्षा के बाद, न्यायमूर्ति ए. गुनेश्वर शर्मा ने दोषमुक्ति में हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं पाया।
अदालत ने कहा कि मुख्य मुद्दा यह था कि क्या शिकायतकर्ता 24 लाख रुपये के कानूनी रूप से वसूली योग्य कर्ज के अस्तित्व को सफलतापूर्वक स्थापित कर पाया था। अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता ने स्वयं जिरह के दौरान स्वीकार किया कि उसके पास नकद भुगतान को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं थे। इसके अलावा, शिकायतकर्ता के अपने गवाहों, उसके दो भाइयों (PW-2 और PW-3) ने 24 लाख रुपये के लेनदेन के संबंध में उसके मामले का समर्थन नहीं किया।
हाईकोर्ट ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष की पुष्टि की कि सबूत का प्रारंभिक भार शिकायतकर्ता पर होता है। फैसले में कहा गया, “यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि कर्ज और देनदारी का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और इसे पहले एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत स्थापित किया जाना चाहिए और उसके बाद ही अधिनियम की धारा 139 के तहत वैधानिक अनुमान लागू होगा।”
सुप्रीम कोर्ट के रंजीत सरकार बनाम रवि गणेश भारद्वाज मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने दोहराया कि “कानूनी रूप से वसूली योग्य कर्ज का अस्तित्व अधिनियम की धारा 139 के तहत अनुमान का विषय नहीं है।”
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि शिकायतकर्ता नकद भुगतान का कोई सबूत पेश करने में विफल रहा और उसके गवाहों ने उसके दावे की पुष्टि नहीं की, इसलिए उसने कर्ज के अस्तित्व को साबित करने के अपने प्रारंभिक बोझ का निर्वहन नहीं किया। नतीजतन, आरोपी के खिलाफ धारा 139 के तहत अनुमान लागू नहीं किया जा सका।
अपने अंतिम आदेश में, न्यायालय ने कहा: “इस मामले में, शिकायतकर्ता कानूनी रूप से वसूली योग्य कर्ज, यानी आरोपी को 24,00,000/- रुपये नकद के भुगतान के अस्तित्व को स्थापित नहीं कर सका, क्योंकि वह इस तरह के भुगतान के सबूत के रूप में कोई दस्तावेज पेश नहीं कर सका। चेक पर आरोपी के हस्ताक्षर की महज स्वीकृति एनआई एक्ट की धारा 139 के तहत अनुमान को आकर्षित नहीं करेगी।”
निचली अदालत के फैसले में कोई अवैधता न पाते हुए, हाईकोर्ट ने अपील खारिज कर दी और श्री महेंद्र कुमार जैन की दोषमुक्ति को बरकरार रखा।