न्यायिक सक्रियता न्यायिक आतंकवाद न बने: राज्यपाल की मंजूरी की समयसीमा पर सुनवाई के दौरान सीजेआई गवई की टिप्पणी

मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने गुरुवार को कहा कि न्यायिक सक्रियता कभी भी “न्यायिक आतंकवाद” या “न्यायिक साहसिकता” में नहीं बदलनी चाहिए। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति के संदर्भ पर चल रही सुनवाई के दौरान आई, जिसमें यह संवैधानिक प्रश्न उठाया गया है कि क्या अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकती है।

मुख्य न्यायाधीश की यह टिप्पणी तब आई जब केंद्र की ओर से पेश हो रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अनुभवी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। इस पर सीजेआई गवई ने कहा, “हमने कभी निर्वाचित लोगों के बारे में कुछ नहीं कहा। मैं हमेशा कहता आया हूं कि न्यायिक सक्रियता कभी भी न्यायिक आतंकवाद या न्यायिक साहसिकता में नहीं बदलनी चाहिए।”

READ ALSO  हाईस्कूल के बाद क्यों नहीं? सुप्रीम कोर्ट ने एलएलबी कोर्स की अवधि कम करने और इण्टर के बाद LLB करने के अनुमति वाली याचिका ख़ारिज की

संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर शामिल थे।

Video thumbnail

केंद्र की दलीलें

मेहता ने अपनी दलीलें जारी रखते हुए राज्यपाल के अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत “मंजूरी रोके रखना” राज्यपाल का एक स्वतंत्र और पूर्ण संवैधानिक कार्य है। उन्होंने यह भी कहा कि आज के समय में मतदाता सीधे अपने निर्वाचित नेताओं से सवाल पूछते हैं और “उन्हें बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता”।

सुनवाई की शुरुआत में मेहता ने वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल की दलीलें सुनने की इच्छा जताई और कहा कि सिब्बल का शासन और संसदीय जीवन का लंबा अनुभव है।

संदर्भ की पृष्ठभूमि

यह मामला मई 2025 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने पर शुरू हुआ। राष्ट्रपति ने पूछा कि क्या न्यायिक आदेश राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर सकते हैं, जब राज्यपाल अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयक उन्हें भेजते हैं। पाँच पन्नों के इस संदर्भ में राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर 14 सवाल पूछे गए हैं।

READ ALSO  शाहबाद डेयरी हत्याकांड: अदालत ने दिल्ली पुलिस को आरोपी से दो दिन की हिरासत में पूछताछ करने की अनुमति दी

बुधवार को पीठ ने स्पष्ट किया था कि राज्यपाल किसी विधेयक को दूसरी बार राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते, यदि विधानसभा ने उसे वापस भेजने के बाद पुनः पारित कर दिया है।

केंद्र का लिखित पक्ष

अपने लिखित पक्ष में केंद्र ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए तय समयसीमा लागू करना सरकार के एक अंग द्वारा वह शक्ति लेने जैसा होगा जो संविधान ने उसे नहीं दी है, और इससे “संवैधानिक अव्यवस्था” पैदा हो सकती है।

READ ALSO  क्या धार्मिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाओं को सरकारी खजाने से धन देना भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 25, 26, 29 और 30 का उल्लंघन है? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया निर्णय

यह मुद्दा तब प्रमुखता से उठा जब सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की भूमिका से जुड़े मामले में पहली बार निर्देश दिया कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन माह के भीतर निर्णय लेना होगा।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles