दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि एक गैर-कमाऊ जीवनसाथी (non-earning spouse) को अपनी बेरोजगारी साबित करने के लिए आयकर रिटर्न (ITR) पेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। अदालत ने टिप्पणी की कि बिना किसी कर योग्य आय वाली गृहिणी से ऐसे दस्तावेजों पर जोर देना “असंभव की मांग करना” (demand the impossible) है।
न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने पति द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें पत्नी और बेटी को अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया गया था।
अदालत ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 24 के तहत भरण-पोषण के वैधानिक अधिकार को केवल इसलिए नकारा नहीं जा सकता क्योंकि पत्नी ने ITR या खर्चों के विस्तृत बिल पेश नहीं किए हैं, विशेष रूप से तब जब पति की आय स्वीकार्य और पर्याप्त है।
मामले की पृष्ठभूमि
पक्षकारों का विवाह 19 जनवरी 2001 को हुआ था और 2004 में उनकी एक बेटी का जन्म हुआ। वैवाहिक मतभेदों के कारण, पति-पत्नी 2015 से अलग रह रहे हैं। 4 फरवरी 2020 को, अपीलकर्ता-पति ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(ia) और (ib) के तहत तलाक के लिए याचिका दायर की।
तलाक की कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादी-पत्नी ने ‘वादकालीन भरण-पोषण’ (maintenance pendente lite) के लिए एक आवेदन दायर किया और 50,000 रुपये प्रति माह की मांग की। पत्नी ने दलील दी कि पति ‘डेल इंटरनेशनल सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड’ में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत है और उसकी शुद्ध मासिक आय 1,44,932 रुपये है।
फैमिली कोर्ट ने पत्नी के आवेदन को स्वीकार करते हुए पति को पत्नी और बेटी में से प्रत्येक को 25,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करने का निर्देश दिया। इस आदेश से असंतुष्ट होकर पति ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता-पति ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के रजनीश बनाम नेहा (2021) और दिल्ली हाईकोर्ट के कुसुम शर्मा बनाम महिंदर कुमार शर्मा मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया। उसका कहना था कि पत्नी के आय हलफनामे को बिना किसी दस्तावेजी सबूत (जैसे ITR और खर्चों के बिल) के “परम सत्य” मानकर अदालत ने गलती की है।
पति के वकील ने यह भी तर्क दिया कि पत्नी साधन संपन्न है। उन्होंने 25 अप्रैल 2018 को पत्नी द्वारा अपने भाई को किए गए 82,000 रुपये के बैंक हस्तांतरण और म्यूचुअल फंड में निवेश का हवाला दिया। पति का कहना था कि पत्नी ने इन निधियों का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया, जो उसकी स्वतंत्र आय को दर्शाता है।
इसके अतिरिक्त, अपीलकर्ता ने 2015 के एक समझौता ज्ञापन (MoU) का भी हवाला दिया और बेटी के भरण-पोषण के लिए दी जाने वाली राशि के उपयोग की निगरानी के लिए एक संयुक्त बैंक खाते की मांग की।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
खंडपीठ ने पति की दलीलों को खारिज कर दिया और रजनीश बनाम नेहा के फैसले पर उसकी निर्भरता को “तकनीकी रूप से गलत” बताया। अदालत ने स्पष्ट किया कि रजनीश मामले के दिशानिर्देश पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए हैं, न कि बेरोजगार जीवनसाथी से उन दस्तावेजों की मांग करने के लिए जो अस्तित्व में ही नहीं हैं।
गृहिणियों के लिए ITR की आवश्यकता पर: अदालत ने कहा:
“रजनीश (सुप्रा) में निर्धारित दिशानिर्देशों का उद्देश्य पारदर्शिता सुनिश्चित करना और पार्टियों को अपनी वास्तविक वित्तीय स्थिति छिपाने से रोकना है। हालांकि, आयकर रिटर्न दाखिल करने की आवश्यकता कर योग्य आय के अस्तित्व पर आधारित है… ‘शून्य’ आय या कर योग्य सीमा से कम आय वाले व्यक्ति को वैधानिक रूप से आयकर रिटर्न दाखिल करने की आवश्यकता नहीं है। यह आग्रह करना कि एक गैर-कमाऊ जीवनसाथी को अपनी बेरोजगारी साबित करने के लिए ITR पेश करना होगा, असंभव की मांग करना है। इस संदर्भ में ITR की अनुपस्थिति, उसकी आय न होने के दावे की पुष्टि करती है, न कि उसे गलत साबित करती है।”
धारा 24 की कार्यवाही की प्रकृति पर: पीठ ने दोहराया कि HMA की धारा 24 के तहत कार्यवाही सारांश (summary) प्रकृति की होती है, जिसका उद्देश्य तत्काल राहत प्रदान करना है। अदालत ने नोट किया कि जब पति की आय स्वीकार्य हो, तो “खर्च के बिलों (किराने की रसीदें, आदि) पर कठोर आग्रह” करके भरण-पोषण के अधिकार को विफल नहीं किया जा सकता।
पत्नी की कथित आय पर: वर्ष 2018 के बैंक हस्तांतरण के तर्क पर अदालत ने कहा कि एक एकल लेनदेन स्थिर आय का प्रमाण नहीं हो सकता।
“मानव आचरण के सामान्य क्रम में, जब कोई जीवनसाथी वैवाहिक कलह के बाद अपने पैतृक घर में शरण लेता है, तो माता-पिता और भाई-बहनों के साथ उनकी वित्तीय परस्पर निर्भरता स्वाभाविक है। आय, वेतन या व्यवसाय के किसी भी प्रमाण के अभाव में, ऐसी प्रविष्टियां तार्किक रूप से अघोषित पेशेवर आय के बजाय घरेलू पारिवारिक व्यवस्था या पिछली बचत के उपयोग के लिए मानी जाती हैं।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि फैमिली कोर्ट के आदेश में कोई अवैधता नहीं है। अदालत ने माना कि दो व्यक्तियों (पत्नी और बेटी) की जरूरतों और अपीलकर्ता की आय को देखते हुए दी गई भरण-पोषण राशि अत्यधिक नहीं है।
नतीजतन, अदालत ने अपील खारिज कर दी और भरण-पोषण पर लगी सभी अंतरिम रोक हटा दीं। अपीलकर्ता को एक महीने के भीतर सभी बकाया राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।
मामले का विवरण:
- केस टाइटल: सुरंजन साहा बनाम रुम्पा साहा
- केस नंबर: MAT.APP.(F.C.) 370/2023
- कोरम: न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर

