हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने चेक बाउंस मामले में एक सख्त और महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138 के तहत शिकायत तब तक मान्य नहीं होगी, जब तक कि शिकायतकर्ता यह साबित करने के लिए ठोस दस्तावेजी सबूत पेश नहीं करता कि वह चेक पर अंकित फर्म का प्रोपराइटर (मालिक) है। कोर्ट ने दो टूक कहा कि केवल शपथ पत्र (Affidavit) में खुद को मालिक बता देना पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि समय-सीमा से बाधित (Time-Barred) कर्ज के लिए जारी किया गया चेक कानूनी रूप से वसूली योग्य ऋण (Legally Enforceable Debt) की श्रेणी में नहीं आता है।
जस्टिस राकेश कैंथला की पीठ ने शिकायतकर्ता अश्वनी कुमार द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए आरोपी राज कुमार को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता ने खुद को घुमारवीं स्थित ‘मैसर्स बाबा एंटरप्राइजेज’ का प्रोपराइटर बताते हुए कोर्ट में परिवाद दायर किया था। उनका आरोप था कि आरोपी, जिससे उनके मैत्रीपूर्ण संबंध थे, ने शिकायत दर्ज कराने से चार साल पहले उनसे 80,000 रुपये का पारिवारिक ऋण लिया था और एक महीने के भीतर इसे लौटाने का वादा किया था।
इस देनदारी को चुकाने के लिए आरोपी ने ‘एच.पी. स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक, घुमारवीं’ का 80,000 रुपये का चेक जारी किया। जब यह चेक भुगतान के लिए बैंक में लगाया गया, तो यह डिशऑनर हो गया।
ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास, घुमारवीं की अदालत ने 16 अक्टूबर 2012 को शिकायत खारिज कर दी थी। ट्रायल कोर्ट का कहना था कि चेक ‘बाबा एंटरप्राइजेज’ के नाम पर जारी किया गया था, लेकिन शिकायतकर्ता यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर सका कि वह ही इस फर्म का मालिक है। इस फैसले के खिलाफ शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
दलीलें
अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) का पक्ष: अपीलकर्ता के वकील पंकज शर्मा ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता ने अपने शपथ पत्र (एफिडेविट) में स्पष्ट रूप से दावा किया था कि वह बाबा एंटरप्राइजेज का मालिक है। उन्होंने कहा कि जिरह के दौरान इस दावे को चुनौती नहीं दी गई थी, इसलिए ट्रायल कोर्ट को चेक के साथ जुड़ी कानूनी धारणा (Presumption) पर विचार करना चाहिए था।
प्रतिवादी (आरोपी) का पक्ष: प्रतिवादी के वकील नील कमल शर्मा ने दलील दी कि शिकायतकर्ता बाबा एंटरप्राइजेज के साथ अपना संबंध साबित करने में विफल रहा है। उन्होंने कहा कि ट्रायल कोर्ट का यह निष्कर्ष बिल्कुल सही था कि शिकायतकर्ता के पास शिकायत दर्ज करने का कोई ‘लोकस स्टैंडाई’ (Locus Standi) या अधिकार नहीं था।
कोर्ट का विश्लेषण
हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों की जांच की और दो प्रमुख कानूनी बिंदुओं पर अपना निर्णय दिया: कर्ज की वसूली योग्यता और शिकायतकर्ता का अधिकार।
1. टाइम-बार्ड कर्ज (Time-Barred Debt) कोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता ने अपने शपथ पत्र में स्वीकार किया था कि आरोपी ने शिकायत दर्ज करने से “चार साल पहले” ऋण लिया था। जस्टिस कैंथला ने कहा कि ऋण की वसूली के लिए परिसीमा अवधि (Limitation Period) तीन साल होती है। चूंकि यह ऋण तीन साल से पुराना था, इसलिए यह टाइम-बार्ड हो चुका था।
कोर्ट ने सोशल लीजिंग (इंडिया) लिमिटेड बनाम राजन कुमार कंथवाल के मामले का हवाला देते हुए कहा:
“समय-सीमा से बाधित (Time-Barred) ऋण के लिए जारी किया गया चेक कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण (Legally Enforceable Debt) नहीं माना जाता है। इसलिए, चेक पेश करने की तारीख पर कोई कानूनी देनदारी नहीं होने के कारण यह शिकायत विचारणीय नहीं थी।”
2. प्रोपराइटरशिप का प्रमाण अदालत ने इस तथ्य पर गौर किया कि चेक ‘बाबा एंटरप्राइजेज’ के नाम पर था, जबकि शिकायत अश्वनी कुमार ने दायर की थी। कोर्ट ने कहा कि केवल शिकायत या शपथ पत्र में यह कह देना कि वह फर्म का प्रोपराइटर है, पर्याप्त नहीं है। इसके लिए दस्तावेजी सबूत पेश करना अनिवार्य है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले मिलिंद श्रीपाद चंदुरकर बनाम कलीम एम. खान का उल्लेख करते हुए हाईकोर्ट ने टिप्पणी की कि बिना किसी दस्तावेजी प्रमाण के, केवल शपथ पत्र में दिया गया बयान कानून की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता। कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“अपीलकर्ता खुद को चेक का प्राप्तकर्ता (Payee) या ‘होल्डर इन ड्यू कोर्स’ होने का दावा तब तक नहीं कर सकता, जब तक वह यह स्थापित नहीं करता कि चेक उसे जारी किए गए थे या वह संबंधित फर्म का एकमात्र प्रोपराइटर है… इस संबंध में शपथ पत्र में महज एक बयान देना कानून की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।”
फैसला
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि निचली अदालत ने आरोपी को बरी करके कोई गलती नहीं की है। जस्टिस कैंथला ने कहा:
“मौजूदा मामले में, यह दिखाने के लिए कोई दस्तावेजी सबूत पेश नहीं किया गया कि शिकायतकर्ता बाबा एंटरप्राइजेज का मालिक है, और विद्वान ट्रायल कोर्ट ने सही ही यह माना था कि शिकायत विचारणीय (Maintainable) नहीं है।”
परिणामस्वरूप, अपील खारिज कर दी गई। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 481 (CrPC की धारा 437-A) के अनुपालन में, प्रतिवादी को 50,000 रुपये का जमानत बांड भरने का निर्देश दिया गया है।
केस डिटेल्स:
- केस टाइटल: अश्वनी कुमार बनाम राज कुमार
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 87/2013
- साइटेशन: 2025:HHC:43252
- कोरम: न्यायमूर्ति राकेश कैंथला
- अपीलकर्ता के वकील: श्री पंकज शर्मा
- प्रतिवादी के वकील: श्री नील कमल शर्मा

