सुप्रीम कोर्ट ने State of Punjab vs. Gurnam @ Gama Etc. मामले में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के उस फैसले को निरस्त कर दिया है, जिसमें एनडीपीएस अधिनियम, 1985 के तहत दोषसिद्ध व्यक्तियों को बरी कर दिया गया था। न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि “केवल इस तकनीकी आधार पर कि पुलिस का सूचनाकर्ता ही जांचकर्ता भी था, अभियुक्तों को बरी नहीं किया जा सकता”, विशेषकर जब वह न्यायिक दृष्टांत (Mohan Lal v. State of Punjab) अब अप्रचलित हो चुका है। शीर्ष अदालत ने मामले को पुनः गुण-दोष के आधार पर विचार हेतु हाईकोर्ट को लौटाया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 20 सितंबर 2009 की एक घटना से संबंधित है, जब पुलिस ने गुप्त सूचना के आधार पर एक ट्रक को रोका। ट्रक को जसविंदर सिंह चला रहा था, जबकि गुरनाम सिंह उर्फ गामा ट्रक की कार्गो सीट पर बोरियों पर बैठा था। तलाशी लेने पर ट्रक से 750 किलोग्राम पोस्त भूसी बरामद हुई।
बरामदगी के बाद एफआईआर संख्या 221/2009 दर्ज की गई। मुकदमे के बाद, 11 दिसंबर 2010 को ट्रायल कोर्ट ने दोनों को दोषी ठहराते हुए 12 वर्ष के कठोर कारावास और ₹1,00,000 के जुर्माने की सजा सुनाई।

दोषियों ने इस फैसले को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में चुनौती दी। 11 दिसंबर 2018 को हाईकोर्ट ने उनकी अपीलें स्वीकार कर दोषमुक्त कर दिया। यह निर्णय साक्ष्यों की जांच पर नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के Mohan Lal v. State of Punjab (2018) निर्णय पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि “न्यायपूर्ण जांच सुनिश्चित करने के लिए सूचनाकर्ता और जांचकर्ता अलग होने चाहिए।”
पंजाब सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत तर्क
पंजाब राज्य की ओर से अधिवक्ता ने दलील दी कि हाईकोर्ट ने केवल Mohan Lal फैसले पर निर्भर करते हुए दोषमुक्ति का आदेश दिया, जबकि एक तीन-सदस्यीय पीठ ने Varinder Kumar v. State of H.P. (2020) में स्पष्ट किया था कि Mohan Lal का निर्णय लंबित मुकदमों में स्वतः दोषमुक्ति का आधार नहीं हो सकता। यह भी कहा गया कि प्रत्येक मामला अपने तथ्यों पर तय किया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, Mukesh Singh v. State (Narcotics Branch of Delhi) (2020) में संविधान पीठ ने Mohan Lal निर्णय को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था और कहा था कि केवल इस कारण से कि सूचनाकर्ता ही जांचकर्ता था, जांच को पक्षपाती या अनुचित नहीं माना जा सकता।
वहीं, प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि हाईकोर्ट का फैसला उस समय लागू कानून (Mohan Lal) पर आधारित था और बाद में आए फैसलों को प्रतिगामी रूप से लागू नहीं किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण व निर्णय
कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि, “हाईकोर्ट ने अभियुक्तों को केवल इस आधार पर दोषमुक्त किया कि सुप्रीम कोर्ट ने Mohan Lal में ऐसा कहा है, लेकिन ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों का कोई विश्लेषण नहीं किया गया।”
पीठ ने माना कि Mohan Lal फैसला अपील के समय प्रचलित था, परंतु बाद में Varinder Kumar और Mukesh Singh द्वारा स्थिति स्पष्ट की गई। Mukesh Singh में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा:
“जहां सूचनाकर्ता ही जांचकर्ता हो, केवल इस कारण से यह नहीं कहा जा सकता कि जांच पक्षपातपूर्ण है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या किसी मामले में वास्तव में पूर्वाग्रह था। केवल इस आधार पर कि सूचनाकर्ता ही जांचकर्ता है, जांच को अनुचित नहीं ठहराया जा सकता और आरोपी केवल इसी आधार पर दोषमुक्त होने का अधिकारी नहीं है। हर मामला तथ्यों के आधार पर तय किया जाएगा।”
प्रतिवादियों की प्रतिगामी प्रभाव की आपत्ति पर कोर्ट ने कहा:
“न्यायालय कानून की व्याख्या करता है, कानून बनाता नहीं है… और जब कोई अपील सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, तो वर्तमान में जो विधि है वही लागू होती है।”
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि दोषमुक्ति केवल एक तकनीकी आधार पर दी गई थी, जो अब अप्रासंगिक हो चुका है। इसलिए हाईकोर्ट का फैसला टिकाऊ नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब सरकार की अपीलें स्वीकार कर पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और मामले को गुण-दोष के आधार पर नए सिरे से सुनवाई के लिए वापस भेज दिया। साथ ही, यह भी कहा कि हाईकोर्ट इस मामले की शीघ्र सुनवाई करे क्योंकि यह अपील वर्ष 2010 से लंबित है।