एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि नाम बदलना एक पूर्ण मौलिक अधिकार नहीं है और इसके लिए कानूनी प्रक्रियाओं का पालन आवश्यक है। मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेन्द्र की खंडपीठ ने एक एकल न्यायाधीश के आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें एक व्यक्ति को उसकी शैक्षिक प्रमाणपत्रों में नया नाम दर्ज कराने की अनुमति दी गई थी।
यह निर्णय विशेष अपील संख्या 459/2023 (उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद समी राव और अन्य) में आया, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार, माध्यमिक शिक्षा परिषद (UP Board) और उसके क्षेत्रीय सचिव ने 25 मई 2023 को दिए गए एकल न्यायाधीश के फैसले को चुनौती दी थी। राज्य की ओर से एडवोकेट कुनाल रवि सिंह और रामानंद पांडे ने पक्ष रखा, जबकि प्रतिवादी मोहम्मद समी राव की ओर से एडवोकेट श्रेयस श्रीवास्तव पेश हुए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद तब शुरू हुआ जब मोहम्मद समी राव, जिन्हें पहले शाहनवाज के नाम से जाना जाता था, ने उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से हाई स्कूल (2013) और इंटरमीडिएट (2015) के प्रमाणपत्रों में नया नाम दर्ज कराने की मांग की। उन्होंने अपने नाम परिवर्तन के समर्थन में निम्नलिखित दस्तावेज प्रस्तुत किए:
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- 2020 में जारी राजपत्र (गजट) अधिसूचना,
- नए आधार कार्ड और पैन कार्ड, जिनमें उनका नया नाम दर्ज था।
हालांकि, परिषद के क्षेत्रीय सचिव ने 24 दिसंबर 2020 को नाम परिवर्तन का अनुरोध खारिज कर दिया, यह तर्क देते हुए कि “उत्तर प्रदेश इंटरमीडिएट शिक्षा अधिनियम, 1921” के तहत तीन वर्ष के भीतर नाम परिवर्तन की अनुमति है, लेकिन इसके बाद ऐसा नहीं किया जा सकता।
इसके बाद, राव ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ में याचिका दायर की, जहां अदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और बोर्ड को निर्देश दिया कि वह उनके नए नाम के साथ प्रमाणपत्र जारी करे। इसके अलावा, अदालत ने आधार कार्ड, पासपोर्ट, मतदाता पहचान पत्र और अन्य सरकारी दस्तावेजों में भी नाम परिवर्तन सुनिश्चित करने के आदेश दिए। इस फैसले को सरकार ने हाईकोर्ट की खंडपीठ में चुनौती दी।
मामले में मुख्य कानूनी मुद्दे
- क्या नाम बदलना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार है?
- क्या न्यायालय को किसी कानून या नियम को “रीड डाउन” (संशोधित) करने का अधिकार है?
- क्या सिर्फ़ गजट अधिसूचना के आधार पर शैक्षिक प्रमाणपत्रों में नाम बदला जा सकता है?
- क्या बोर्ड को कई वर्षों बाद भी नाम बदलने के लिए बाध्य किया जा सकता है?
राज्य सरकार (अपीलकर्ता) के तर्क
राज्य सरकार की ओर से एडवोकेट रामानंद पांडे ने तर्क दिया कि:
- मौलिक अधिकार पूर्ण रूप से निरंकुश नहीं हैं और वे यथोचित प्रतिबंधों के अधीन होते हैं।
- 1921 अधिनियम के नियम 7 के अनुसार, तीन वर्ष बाद नाम परिवर्तन की अनुमति नहीं है।
- एकल न्यायाधीश ने न्यायिक समीक्षा की सीमाओं को पार किया, क्योंकि उन्होंने नियमों को संशोधित करने का आदेश दे दिया, जो विधायिका का कार्यक्षेत्र है।
- सुप्रीम कोर्ट ने “जिग्या यादव बनाम CBSE (2021) 7 SCC 535” में स्पष्ट किया था कि नाम परिवर्तन के लिए गजट अधिसूचना के साथ सिविल कोर्ट का डिक्री (विधिक घोषणा) अनिवार्य है।
प्रतिवादी (मोहम्मद समी राव) के तर्क
एडवोकेट श्रेयस श्रीवास्तव, जो प्रतिवादी की ओर से उपस्थित थे, ने कहा कि:
- निजता और आत्म-परिचय के अधिकार के तहत व्यक्ति को अपना नाम बदलने का अधिकार है।
- बोर्ड का फैसला संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और 21 का उल्लंघन करता है।
- गजट अधिसूचना और नए पहचान दस्तावेज पर्याप्त प्रमाण हैं, और सिविल कोर्ट डिक्री की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
- एकल न्यायाधीश ने सही कानूनी व्याख्या की थी, ताकि व्यक्तिगत अधिकारों पर अनावश्यक प्रतिबंध न लगे।
हाईकोर्ट का निर्णय और टिप्पणियां
खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश को रद्द कर दिया और स्पष्ट किया कि:
- “नाम बदलना अनुच्छेद 21 के तहत एक पूर्ण मौलिक अधिकार नहीं है।”
- उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के नियम वैध और बाध्यकारी हैं, और तीन वर्ष की समय-सीमा को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
- गजट अधिसूचना मात्र से नाम परिवर्तन का कानूनी अधिकार नहीं बनता; इसके लिए सिविल कोर्ट से विधिक घोषणा (डिक्री) आवश्यक है।
- एकल न्यायाधीश ने “रीडिंग डाउन” का उपयोग गलत तरीके से किया, क्योंकि अदालतें विधायिका के बनाए कानूनों को बदल नहीं सकतीं।
- न्यायपालिका को नीति-निर्धारण (Policy Making) में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, और सरकार को प्रशासनिक नियम बनाने का आदेश देना विधायी शक्तियों का उल्लंघन है।