तलाकशुदा मुस्लिम महिला को पूर्व पति से पुनर्विवाह के लिए ‘हलाला’ और दूसरे निकाह का तलाक साबित करना अनिवार्य; केरल हाईकोर्ट ने रद्द किया गुजारा भत्ता का आदेश

केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला का अपने पूर्व पति (पहले पति) के साथ पुनर्विवाह तभी वैध माना जाएगा, जब वह ‘हलाला’ के सिद्धांत के तहत अपने बीच के (intervening) विवाह के विघटन का कड़ा सबूत पेश करे। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के सबूत के अभाव में, पहले पति के साथ किया गया कथित पुनर्विवाह शुरू से ही शून्य (void) माना जाएगा क्योंकि एक मौजूदा विवाह की बाधा बरकरार रहती है। नतीजतन, ऐसी स्थिति में पत्नी दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण (maintenance) का दावा नहीं कर सकती।

जस्टिस कौसर एडप्पगथ की पीठ ने मलप्पुरम फैमिली कोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि यदि महिला किसी अविघटित पूर्व विवाह के कारण पुनर्विवाह के लिए अयोग्य है, तो केवल लंबे समय तक साथ रहने (cohabitation) से वैध विवाह की धारणा (presumption) नहीं बनाई जा सकती।

यह मामला मलप्पुरम फैमिली कोर्ट के 4 जुलाई, 2024 के उस आदेश के खिलाफ दायर पुनरीक्षण याचिका (revision petition) से संबंधित है, जिसमें याचिकाकर्ता-पति को अपनी पूर्व पत्नी को 6,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया गया था। हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला, अपने दूसरे पति से विवाह विच्छेद को निर्णायक रूप से साबित किए बिना, अपने पहले पति से कथित पुनर्विवाह के आधार पर भरण-पोषण का दावा कर सकती है। हाईकोर्ट ने गुजारा भत्ता के आदेश को रद्द कर दिया और प्रतिवादी (पत्नी) को अतिरिक्त सबूत पेश करने का मौका देने के लिए मामले को वापस फैमिली कोर्ट भेज दिया।

मामले की पृष्ठभूमि

मामले से जुड़े पक्षकार मुस्लिम पर्सनल लॉ द्वारा शासित हैं। उनका निकाह मूल रूप से 9 मई, 1983 को हुआ था और उनकी एक बेटी भी हुई। पति ने 20 सितंबर, 1986 को ‘तलाक’ उच्चारित कर पत्नी को तलाक दे दिया।

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तलाक के बाद घटनाक्रम इस प्रकार रहा:

  • याचिकाकर्ता (पति) ने 21 सितंबर, 1986 को दूसरी महिला से शादी कर ली। 2020 में दूसरी पत्नी की मृत्यु के बाद उसने तीसरी शादी की।
  • प्रतिवादी (पत्नी) ने 4 अप्रैल, 1991 को एक अन्य व्यक्ति से निकाह किया।

पत्नी ने फैमिली कोर्ट में धारा 125 के तहत याचिका दायर कर दावा किया कि उसका दूसरा विवाह केवल एक वर्ष चला था और उसने 27 अप्रैल, 2012 को मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार अपने पहले पति (याचिकाकर्ता) से पुनर्विवाह कर लिया था।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता (पति) ने दावे का विरोध करते हुए तर्क दिया कि उसके और प्रतिवादी के बीच कोई दूसरा निकाह (पुनर्विवाह) नहीं हुआ था। उसने विशेष रूप से इस बात से इनकार किया कि प्रतिवादी का उसके दूसरे पति के साथ विवाह कानूनी रूप से भंग हो गया था। पति की दलील थी कि चूँकि बीच के विवाह का तलाक साबित नहीं हुआ है, इसलिए उसके साथ कथित पुनर्विवाह अवैध है।

दूसरी ओर, प्रतिवादी (पत्नी) ने तर्क दिया कि उसने अपने दूसरे पति को शादी के एक साल के भीतर तलाक दे दिया था। उसके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों (चनमुनिया और कमला मामले) का हवाला देते हुए कहा कि धारा 125 CrPC की कार्यवाही संक्षिप्त प्रकृति की होती है और लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने से विवाह की उपधारणा (presumption) उत्पन्न होती है, जो उसे भरण-पोषण का हकदार बनाती है।

कोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने मुस्लिम कानून का हवाला देते हुए कहा कि एक तलाकशुदा महिला तब तक उसी पुरुष से दोबारा शादी नहीं कर सकती जिसने उसे तलाक दिया था, जब तक कि वह ‘हलाला’ की प्रक्रिया पूरी न कर ले।

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कोर्ट ने अपने फैसले में कहा:

“मुस्लिम कानून के तहत एक तलाकशुदा पुरुष और महिला के बीच पुनर्विवाह केवल तभी अनुमन्य है जब महिला किसी अन्य पुरुष से शादी करे और फिर उसे तलाक दे दे—इसे हलाला या निकाह हलाला के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है… इसलिए, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अपने पूर्व पति के साथ पुनर्विवाह के वैध होने के लिए, बीच के विवाह, उसकी पूर्णता (consummation) और कानूनी विघटन का होना आवश्यक है।”

दूसरे विवाह के विघटन का सबूत कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादी ने अपनी भरण-पोषण याचिका में दूसरे विवाह का उल्लेख नहीं किया था, हालांकि उसने अपने शपथ पत्र में इसे स्वीकार किया। कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादी अपने दूसरे पति से कथित तलाक की तारीख या वर्ष साबित करने में विफल रही।

  • प्रतिवादी ने स्वीकार किया कि उसे नहीं पता कि तलाक की सूचना मस्जिद को दी गई थी या नहीं।
  • उसके गवाह (भाई और बेटी) कथित तलाक के समय नाबालिग थे और उन्होंने विघटन के संबंध में कोई ठोस सबूत नहीं दिया।

कोर्ट ने कहा:

“इस प्रकार, प्रतिवादी के [दूसरे पति] के साथ विवाह के विघटन के सबूत के अभाव में, याचिकाकर्ता के साथ उसका पुनर्विवाह साबित होने पर भी शून्य (void) होगा। यह हलाला के सिद्धांत से भी बाधित होगा।”

सहजीवन से विवाह की धारणा लंबे समय तक साथ रहने के आधार पर विवाह की धारणा के तर्क पर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह धारणा खंडन योग्य (rebuttable) है और यह वहां लागू नहीं होती जहां विवाह के लिए कोई कानूनी बाधा हो। सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा:

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“यह भी तय है कि वैध विवाह की धारणा वहीं उत्पन्न होगी जहां पति-पत्नी के रूप में लंबा और निरंतर सहजीवन रहा हो और जहां विवाह के लिए कोई अजेय बाधा न हो, जैसे कि पार्टियों के बीच निषिद्ध रिश्ता या महिला का किसी जीवित पति की अविघटित पत्नी होना।”

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि प्रतिवादी अपने दूसरे पति से तलाक साबित नहीं कर सकी, इसलिए वह याचिकाकर्ता से शादी करने के लिए अयोग्य थी। नतीजतन, भरण-पोषण का दावा करने के लिए विवाह की धारणा का सहारा नहीं लिया जा सकता।

फैसला

हाईकोर्ट ने माना कि पेश किए गए सबूत प्रतिवादी के दूसरे विवाह के विघटन और याचिकाकर्ता के साथ उसके पुनर्विवाह को साबित करने के लिए अपर्याप्त हैं। हालांकि, धारा 125 की कार्यवाही की प्रकृति और प्रतिवादी की स्थिति पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए, कोर्ट ने उसे सबूत पेश करने का एक और मौका देने का निर्णय लिया।

कोर्ट ने कहा, “मेरा विचार है कि प्रतिवादी को अपने दूसरे विवाह के विघटन और पुनर्विवाह को साबित करने के लिए, यदि कोई हो, तो अतिरिक्त सबूत पेश करने का अवसर दिया जाना चाहिए।”

हाईकोर्ट ने 04.07.2024 के आदेश को रद्द कर दिया और मामले को फैमिली कोर्ट, मलप्पुरम को वापस भेज (remand) दिया, ताकि दोनों पक्षों को तीन महीने के भीतर अतिरिक्त सबूत पेश करने का अवसर देकर मामले का नए सिरे से निपटारा किया जा सके।

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