सुप्रीम कोर्ट ने 6 नवंबर, 2025 को दिए एक फैसले में यह व्यवस्था दी है कि किसी अपीलीय अदालत द्वारा उन अपीलकर्ताओं के पक्ष में पारित की गई डिक्री ‘अमान्य’ (nullity) है, जिनकी मृत्यु अपील की सुनवाई से पहले हो गई थी। कोर्ट ने माना कि ऐसी परिस्थितियों में, ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित मूल डिक्री पुनर्जीवित हो जाती है और निष्पादन योग्य (executable) बन जाती है।
जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर की पीठ ने मूल वादी के कानूनी उत्तराधिकारी द्वारा दायर एक दीवानी अपील को स्वीकार कर लिया। वादी अपनी 2006 की ट्रायल कोर्ट की डिक्री के निष्पादन की मांग कर रहा था, जिसे निष्पादन अदालत (executing court) और हाईकोर्ट, दोनों ने खारिज कर दिया था। निचली अदालतों ने यह माना था कि ट्रायल कोर्ट की डिक्री का विलय बाद में आई प्रथम अपीलीय अदालत की संशोधित डिक्री में हो गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और निष्पादन अदालत के आदेशों को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट की मूल डिक्री के लिए निष्पादन की कार्यवाही को बहाल कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक पूर्व सैनिक स्वर्गीय श्री अर्जुनराव ठाकरे के कानूनी वारिसों द्वारा दायर एक मुकदमे (RCS No.181 of 2001) से संबंधित है, जिन्हें महाराष्ट्र के वर्धा जिले में कृषि भूमि आवंटित की गई थी। उनकी मृत्यु के बाद, आरोप है कि कलेक्टर द्वारा वही भूमि प्रतिवादी संख्या 3 से 5 को पुनः आवंटित कर दी गई।
14 अगस्त 2006 को, ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा वादी के पक्ष में तय किया, प्रतिवादी 3-5 को किए गए पुनः आवंटन को अवैध घोषित किया और वादी को भूमि का मालिक मानते हुए कब्जे का हकदार ठहराया।
प्रतिवादी संख्या 4 और 5 ने इस डिक्री को एक प्रथम अपील दायर करके चुनौती दी। इस अपील के लंबित रहने के दौरान, प्रतिवादी संख्या 4 की मृत्यु 27 अक्टूबर 2006 को और प्रतिवादी संख्या 5 की मृत्यु 20 सितंबर 2010 को हो गई।
प्रथम अपीलीय अदालत ने 28 सितंबर 2010 को—यानी दोनों अपीलकर्ताओं की मृत्यु के बाद—दलीलों को सुना और 20 अक्टूबर 2010 को अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट की डिक्री को संशोधित कर दिया। अपीलकर्ताओं की मृत्यु का यह तथ्य प्रथम अपीलीय अदालत के संज्ञान में नहीं लाया गया था।
इसके बाद मूल वादी (वर्तमान अपीलकर्ता के पूर्वज) ने दूसरी अपील दायर की, जिसे शुरू में समाप्त (abated) मानकर निपटा दिया गया। उन्होंने यह तर्क देते हुए बहाली की मांग की कि पहली अपील का फैसला अमान्य था क्योंकि यह अपीलकर्ताओं की मृत्यु के बाद पारित किया गया था। हाईकोर्ट ने 3 दिसंबर 2012 को इन तथ्यों पर ध्यान देते हुए दूसरी अपील को बहाल कर दिया। बाद में वादी ने इस आधार पर दूसरी अपील वापस ले ली कि ट्रायल कोर्ट का फैसला ही लागू था।
अपीलकर्ता, श्री विक्रम भालचंद्र घोंगड़े, ने बाद में 14.08.2006 की मूल ट्रायल कोर्ट डिक्री को निष्पादित करने के लिए निष्पादन कार्यवाही (Regular Darkhast No.22 of 2022) दायर की।
निष्पादन अदालत ने इस आवेदन को खारिज कर दिया। अदालत ने तर्क दिया कि चूंकि प्रतिवादी संख्या 5 की मृत्यु 20.09.2010 को हुई और अपील का फैसला 20.10.2010 को हुआ—यानी कानूनी वारिसों को रिकॉर्ड पर लाने के लिए 90-दिन की सीमा अवधि समाप्त होने से पहले—इसलिए अपील समाप्त नहीं हुई थी। इस प्रकार, निष्पादन अदालत ने माना कि ट्रायल कोर्ट की डिक्री का विलय संशोधित अपीलीय डिक्री में हो गया था। हाईकोर्ट ने 11 मार्च 2024 को इस आदेश को बरकरार रखा, जिसके बाद यह अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क
अपीलकर्ता ने व्यक्तिगत रूप से पेश होकर तर्क दिया कि चूंकि दोनों अपीलकर्ता (प्रतिवादी 4 और 5) की मृत्यु पहली अपील की सुनवाई (28.09.2010) और फैसले (20.10.2010) से पहले हो गई थी, इसलिए परिणामी निर्णय “अमान्य” था। उन्होंने तर्क दिया कि नागरिक प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure) के आदेश XXII, नियम 6 (Order XXII Rule 6) के प्रावधान (जो किसी पक्ष की मृत्यु सुनवाई पूरी होने के बाद लेकिन फैसला सुनाए जाने से पहले होने पर फैसले को बचाता है) यहां लागू नहीं होते। उन्होंने जोर दिया कि ट्रायल कोर्ट की डिक्री ही एकमात्र वैध डिक्री थी।
प्रतिवादियों के वकील ने हाईकोर्ट और निष्पादन अदालत के आदेशों का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट की डिक्री को संशोधित किया जा चुका था और केवल संशोधित डिक्री को ही निष्पादित किया जा सकता था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस अतुल एस. चंदुरकर द्वारा लिखे गए फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि निष्पादन अदालत ने गलती की थी। पीठ ने कहा, “प्रथम अपीलीय अदालत द्वारा पारित डिक्री, जो एक ऐसी अपील में पारित की गई थी, जहां अपील की सुनवाई से पहले दोनों अपीलकर्ताओं की मृत्यु हो गई थी, मृत व्यक्तियों के पक्ष में होने के कारण अमान्य (nullity) थी। इसलिए, ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री निष्पादन योग्य है।”
कोर्ट ने पुष्टि की कि आदेश XXII, नियम 6 के प्रावधान उक्त कार्यवाही को नहीं बचाते हैं। फैसले में कहा गया, “इस तथ्य के मद्देनजर कि प्रतिवादी संख्या 4 और 5 की मृत्यु 28.09.2010 को अपील की सुनवाई से पहले हो गई थी, यह स्पष्ट है कि उक्त अपील में कार्यवाही संहिता के आदेश XXII, नियम 6 के प्रावधानों द्वारा नहीं बचाई गई है।”
सुप्रीम कोर्ट ने 90-दिन की अवधि को लेकर निष्पादन अदालत के तर्क पर भी विचार किया। पीठ ने कहा, “इस स्थिति के बावजूद, तथ्य यह है कि अपील की सुनवाई और उसके बाद फैसला होने से पहले, उक्त अपील दायर करने वाले दोनों अपीलकर्ता जीवित नहीं थे। प्रथम अपील में 20.10.2010 को सुनाया गया फैसला, इस प्रकार, उन पक्षकारों के पक्ष में था जो अब जीवित नहीं थे। इसलिए, उक्त निर्णय एक अमान्यता (nullity) के बराबर था और इसमें कानून की कोई शक्ति नहीं थी।”
परिणामस्वरूप, कोर्ट ने पाया, “एकमात्र डिक्री जिसे लागू किया जा सकता था, वह 14.08.2006 को ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित की गई थी।”
पीठ ने बीबी रहमानी खातून व अन्य बनाम हरकू गोप व अन्य मामले पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि यदि कोई अपील समाप्त हो जाती है, तो जिस फैसले के खिलाफ अपील की गई है, वह अंतिम हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को लागू करते हुए कहा: “…वही स्थिति तब उत्पन्न होगी जब अपीलकर्ता/अपीलकर्ताओं की मृत्यु अपील की सुनवाई से पहले हो जाती है… मौजूदा मामले में, मृत अपीलकर्ताओं के पक्ष में दिया गया निर्णय, कानूनी वारिसों को रिकॉर्ड पर लाए बिना, अमान्य होगा और ट्रायल कोर्ट का निर्णय ही वह होगा जो पक्षकारों के अधिकारों को नियंत्रित करेगा। इसलिए, ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित डिक्री निष्पादन के लिए पुनर्जीवित हो जाएगी।”
कोर्ट ने किरन सिंह व अन्य बनाम चमन पासवान व अन्य का हवाला देते हुए पुष्टि की कि एक अमान्य डिक्री की अवैधता को किसी भी स्तर पर, यहां तक कि निष्पादन के स्तर पर भी उठाया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नोट किया कि प्रतिवादी संख्या 4 और 5 के कानूनी वारिसों ने कभी भी खुद को पक्षकार बनाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया, और प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा किया गया विरोध “किसी काम का नहीं” था क्योंकि उसने कभी ट्रायल कोर्ट की डिक्री को चुनौती नहीं दी थी।
अंत में, कोर्ट ने माना, “अपीलकर्ता रेगुलर सिविल सूट नंबर 181 ऑफ 2001 में पारित डिक्री के निष्पादन की मांग करने का हकदार होगा।” निष्पादन अदालत (21.06.2023) और हाईकोर्ट (11.03.2024) के आदेशों को रद्द कर दिया गया और निष्पादन की कार्यवाही को बहाल कर दिया गया।




