ग्वालियर स्थित मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने अशोक कुमार त्रिपाठी नामक पुलिस गार्ड की याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने ड्यूटी के दौरान शराब के सेवन के आरोप में दी गई अनिवार्य सेवानिवृत्ति को चुनौती दी थी। कोर्ट ने अनुशासनात्मक प्राधिकरण के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि यह निर्णय साक्ष्यों पर आधारित था और इसमें न्यायिक हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता अशोक कुमार त्रिपाठी ग्वालियर में हाईकोर्ट के एक जज को आवंटित बंगला नंबर 16 में गार्ड के रूप में तैनात थे। 4 अगस्त 2007 की सुबह लगभग 6:00 बजे वे ड्यूटी के दौरान सोते हुए पाए गए और उन पर शराब के प्रभाव में होने का संदेह हुआ। न्यायाधीश द्वारा जगाए जाने के बाद उन्हें मेडिकल जांच के लिए भेजा गया, जिसमें उनकी सांस में शराब की गंध की पुष्टि हुई।
इससे पहले भी त्रिपाठी पर इसी प्रकार की लापरवाही के आरोप लगे थे। जब वे बंगला नंबर 5 में तैनात थे, तब भी गश्त के दौरान सोते हुए पाए गए थे और गलती स्वीकारने पर केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था।
पक्षकारों की दलीलें
त्रिपाठी ने आरोपों को नकारते हुए कहा कि वे सर्दी-खांसी से पीड़ित थे और उन्होंने खांसी की दवा पी थी, जिसमें संभवतः शराब की मात्रा रही होगी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि मेडिकल लीगल सर्टिफिकेट (MLC) में केवल शराब की उपस्थिति दर्ज की गई थी, लेकिन नशे की पुष्टि नहीं की गई थी। चूंकि मामला एक हाईकोर्ट के न्यायाधीश से संबंधित था और वे एक वर्दीधारी बल से थे, इसलिए उन्होंने मेडिकल रिपोर्ट का विस्तार से विरोध नहीं किया।
राज्य की ओर से शासन पक्ष के अधिवक्ता ने अनुशासनात्मक कार्यवाही का बचाव करते हुए कहा कि सांस में शराब की पुष्टि और पहले की चेतावनी से यह सिद्ध होता है कि याचिकाकर्ता ने गंभीर अनुशासनहीनता की है, जो एक अनुशासित बल के सदस्य के लिए अयोग्य व्यवहार है।
विभागीय जांच और चिकित्सकीय साक्ष्य
मामले में विभागीय जांच कराई गई, जिसमें याचिकाकर्ता की जांच करने वाले मेडिकल अधिकारी डॉ. ए.के. सक्सेना ने गवाही दी:
“सांस में शराब की गंध थी। इसने शराब का सेवन किया है लेकिन यह नशे की अवस्था में नहीं है।”
(MLC रिपोर्ट संख्या 2784 दिनांक 04-08-2007)
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता के पास डॉक्टर से पूछताछ करने का अवसर था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जांच के दौरान शराब के सेवन से संबंधित निष्कर्षों को चुनौती नहीं दी गई।
कोर्ट का विश्लेषण
न्यायमूर्ति जी.एस. अहलुवालिया ने याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें State of Rajasthan v. Heem Singh, B.C. Chaturvedi v. Union of India, तथा Union of India v. P. Gunasekaran शामिल हैं। कोर्ट ने दोहराया कि विभागीय अनुशासनात्मक मामलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित होता है।
कोर्ट ने कहा:
“यह न्यायालय अपीलीय प्राधिकारी के रूप में कार्य नहीं कर सकता और तब तक अपने निष्कर्ष नहीं दे सकता जब तक कि संबंधित प्राधिकरण द्वारा दर्ज किए गए तथ्य साक्ष्यविहीन या मनमाने न हों।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि विभागीय जांच आपराधिक मामलों की तरह कठोर प्रमाण मानकों पर नहीं, बल्कि संभावनाओं के आधार पर संचालित होती है।
निर्णय
हाईकोर्ट ने माना कि ड्यूटी के दौरान शराब पीने का आरोप बिना चुनौती दिए गए चिकित्सकीय साक्ष्य द्वारा प्रमाणित है और यह निष्कर्ष न तो निराधार है, न ही मनमाना। कोर्ट ने कहा:
“अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सजा उस आरोप के सापेक्ष अत्यधिक कठोर नहीं मानी जा सकती जो याचिकाकर्ता पर सिद्ध हुआ है।”
इस प्रकार, याचिका खारिज कर दी गई।