मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर पीठ ने एक पति की तलाक की अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि पत्नी द्वारा करीब 19 वर्षों तक पति की अनुपस्थिति में भी ससुराल में रहना, उसके विवाह के प्रति समर्पण और धर्मनिष्ठा को दर्शाता है। न्यायमूर्ति विवेक रूसिया और न्यायमूर्ति बिनोद कुमार द्विवेदी की खंडपीठ ने यह भी माना कि पत्नी द्वारा पति पर अवैध संबंध का लगाया गया आरोप “महज निराशा” में किया गया था और इसे क्रूरता नहीं कहा जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता पति ने अपनी पत्नी के खिलाफ हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-a) (क्रूरता) और 13(1)(i-b) (परित्याग) के तहत तलाक की याचिका दायर की थी। यह याचिका पहले इंदौर के 15वें अपर जिला न्यायाधीश द्वारा खारिज कर दी गई थी।
दोनों की शादी 1998 में हुई थी और उनका एक पुत्र 2002 में जन्मा। यह निर्विवाद तथ्य है कि पति भोपाल में विशेष सशस्त्र बल में कांस्टेबल के रूप में पदस्थ है जबकि पत्नी अब भी ससुराल के संयुक्त परिवार में निवास कर रही है।

पक्षकारों की दलीलें
पति की ओर से:
अधिवक्ता ने दलील दी कि पत्नी ने 2006 से बिना किसी उचित कारण के पति को छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि 2004 में पत्नी ने पति के साथ उसके कार्यस्थल पर रहने से इनकार कर दिया था और कहा था कि वह उसे पसंद नहीं करती। उनका मुख्य आरोप यह था कि पत्नी ने पति पर एक महिला सहकर्मी के साथ अवैध संबंध का झूठा आरोप लगाया, जो मानसिक क्रूरता का उदाहरण है। उनका कहना था कि फैमिली कोर्ट ने क्रूरता के साक्ष्यों का समुचित मूल्यांकन नहीं किया।
पत्नी की ओर से:
पत्नी की ओर से अधिवक्ता ने तर्क दिया कि पति ने झूठे आधारों पर तलाक की याचिका दाखिल की है ताकि उससे छुटकारा पा सके। उन्होंने कहा कि पत्नी ने हमेशा वैवाहिक कर्तव्यों का पालन किया है और उनका पुत्र इसका प्रमाण है। उन्होंने यह भी कहा कि पति ही उसे अपने साथ नहीं ले गया। पत्नी का अपने ससुराल में रहना उसके स्वभाव, समायोजन और मर्यादा को दर्शाता है, और यह तथ्य कि पति के परिजन भी उसके समर्थन में नहीं हैं, इस दावे को और मज़बूत करता है। यह भी कहा गया कि पति को अपने ही गलत आचरण का लाभ नहीं मिल सकता।
न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने तथ्यों और मानसिक क्रूरता से जुड़े न्यायिक सिद्धांतों की समीक्षा के बाद पाया कि पति की अपील में कोई दम नहीं है।
न्यायमूर्ति बिनोद कुमार द्विवेदी द्वारा लिखे गए फैसले में पत्नी के व्यवहार को “एक विशिष्ट भारतीय स्त्री की निष्ठा” करार दिया गया। न्यायालय ने कहा,
“यह एक ऐसा मामला है जो उत्तरदायी पत्नी की निष्ठा को दर्शाता है, जो अपने पारिवारिक जीवन को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करती है।”
न्यायालय ने यह भी कहा,
“छोड़े जाने के दुःख के बावजूद उसने अपने धर्म से विमुख नहीं हुई, ससुराल में रही, उनकी सेवा करती रही और परिवार की गरिमा को बनाए रखा।”
कोर्ट ने यह विशेष रूप से रेखांकित किया कि,
“जब वह अकेली छोड़ दी गई, तब भी उसने न मंगलसूत्र त्यागा, न सिंदूर, न ही विवाह की पहचान देने वाले किसी प्रतीक को छोड़ा क्योंकि उसके लिए विवाह कोई अनुबंध नहीं, बल्कि संस्कार है – एक अमिट जीवन संस्कार।”
जहां तक पत्नी द्वारा लगाए गए अवैध संबंध के आरोप की बात है, कोर्ट ने कहा कि यह आरोप “केवल निराशा में उत्पन्न आशंका” है और इसे इस विशेष परिस्थिति में क्रूरता नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा:
“केवल निराशा में वह ऐसा सोचने को विवश हुई और अत्यंत निराशा में उसने आशंका प्रकट की कि पति का किसी अन्य स्त्री से प्रेम संबंध है, इसलिए वह उसे अपने साथ नहीं ले गया। यह आरोप सार्वजनिक रूप से नहीं लगाया गया… यह तथ्य केवल पति द्वारा लगाए गए आरोपों के उत्तर में लिखित बयान में दिया गया है।”
कोर्ट ने पति द्वारा तलाक के लिए दिए गए आधारों को “बहुत सतही और खोखले” बताया और कहा कि पत्नी द्वारा वैवाहिक संबंधों का निर्वहन नहीं करने का आरोप भी “स्वयं तथ्य से असत्य सिद्ध होता है क्योंकि उनके वैवाहिक संबंध से पुत्र का जन्म हुआ है।”
एक महत्वपूर्ण अवलोकन में कोर्ट ने कहा कि पत्नी के खिलाफ पति के आरोपों का समर्थन उसके परिवार के किसी सदस्य ने नहीं किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि आरोप झूठे हैं।
कोर्ट ने विधिक सिद्धांत “nullus commodum capere potest de injuria sua propria” का उल्लेख करते हुए कहा कि,
“कोई व्यक्ति अपने ही गलत कार्य से लाभ नहीं उठा सकता।”
कोर्ट ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि यह पति ही था जिसने पत्नी को छोड़ा और क्रूरता की।
अंततः कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को सही ठहराते हुए अपील खारिज कर दी और निर्देश दिया कि दोनों पक्ष अपने-अपने खर्च वहन करें।