मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जिला न्यायपालिका के किसी सदस्य के विरुद्ध न्यायिक आदेश को लेकर की गई शिकायत पर कार्रवाई की मांग करना शिकायतकर्ता का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। न्यायालय ने कहा कि ऐसी शिकायतों पर कार्रवाई करना पूरी तरह से हाईकोर्ट का विशेषाधिकार है।
कोर्ट ने एक ऐसी रिट याचिका को खारिज कर दिया जिसमें एक जज के खिलाफ की गई शिकायत को बिना कारण बताए बंद कर दिए जाने को चुनौती दी गई थी। साथ ही याचिकाकर्ता पर ₹50,000 की अनुकरणीय लागत भी लगाई गई, यह कहते हुए कि यह याचिका न्यायपालिका पर दबाव बनाने की मंशा से दायर की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता रजनीश चतुर्वेदी ने यह रिट याचिका उस समय दायर की जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अपनी प्रशासनिक शक्तियों का उपयोग करते हुए उनके द्वारा न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी ख़ालिदा तनवीर के विरुद्ध की गई शिकायत को “फाइल” (यानी कार्रवाई योग्य न मानते हुए बंद) करने का आदेश दे दिया, वह भी बिना कोई कारण बताए।

गौरतलब है कि याचिकाकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 332 (लोक सेवक को उसके कर्तव्य से रोकने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुँचाना) के तहत दोषी ठहराया गया था। यह सजा 10 दिसंबर 2022 को न्यायिक मजिस्ट्रेट ख़ालिदा तनवीर द्वारा सुनाई गई थी। उस सजा के खिलाफ याचिकाकर्ता की अपील उमरिया सत्र न्यायालय में लंबित है।
अपील लंबित रहने के दौरान, 9 फरवरी 2024 को याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार (विजिलेंस) को शिकायत भेजी, जिसमें आरोप लगाया गया कि मजिस्ट्रेट ने उन्हें आश्वस्त किया था कि उन्हें बचाव साक्षी प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि अभियोजन पक्ष की गवाही दोष सिद्ध करने के लिए अपर्याप्त थी। शिकायत में कहा गया कि दो अभियोजन गवाह पक्षद्रोही हो गए थे और एक की जिरह नहीं हो सकी थी, इसलिए उन्हें विश्वास दिलाया गया कि वह बरी हो जाएंगे। इसके बावजूद उन्हें दोषी ठहराया गया, जिससे उन्होंने न्यायाधीश की निष्पक्षता पर सवाल उठाए।
इस शिकायत की प्रशासनिक स्तर पर समीक्षा की गई और माननीय मुख्य न्यायाधिपति द्वारा 18 मई 2024 को इसे “फाइल” करने का आदेश पारित किया गया। इसी आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने यह रिट दायर की।
याचिकाकर्ता की दलीलें
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री नरिंदर पाल सिंह रूपड़ा, अधिवक्ता सुश्री मुस्कान आनंद के साथ, याचिकाकर्ता की ओर से उपस्थित हुए और तर्क दिया कि हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश एक स्पीकिंग ऑर्डर (कारण युक्त आदेश) होना चाहिए था।
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Kranti Associates Pvt. Ltd. v. Masood Ahmed Khan (2010) 9 SCC 496 का हवाला देते हुए कहा कि प्रशासनिक और अर्ध-न्यायिक आदेशों के बीच की रेखा अब धुंधली हो चुकी है और ऐसे किसी भी आदेश में कारण होना अनिवार्य है, जो किसी व्यक्ति के अधिकारों को प्रभावित करता हो।
इसके अतिरिक्त, Mohinder Singh Gill v. Chief Election Commissioner (1978) 1 SCC 405 का हवाला देते हुए यह तर्क दिया गया कि सार्वजनिक आदेशों को केवल आदेश के शब्दों के आधार पर ही समझा जाना चाहिए, बाद में दी गई सफाई पर नहीं।
न्यायालय की विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अमित सेठ की खंडपीठ ने सुनवाई करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के जिन फैसलों का हवाला दिया गया, वे इस मामले की परिस्थितियों से अलग हैं। अदालत ने माना कि सामान्यतः प्रशासनिक आदेशों को कारण युक्त होना चाहिए, लेकिन हर आदेश चुनौती योग्य नहीं होता।
कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किया:
“केवल वही प्रशासनिक आदेश चुनौती योग्य होते हैं, जिनसे याचिकाकर्ता के किसी संवैधानिक, वैधानिक या अन्य कानूनी अधिकार का उल्लंघन होता है।”
अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि शिकायतकर्ता यह नहीं दिखा सकता कि उसके किसी कानूनी अधिकार का हनन हुआ है, तो ऐसी याचिका न्यायिक समीक्षा के योग्य नहीं है।
अदालत ने शिकायतकर्ता की भूमिका को परिभाषित करते हुए कहा:
“जब कोई व्यक्ति किसी जज के खिलाफ शिकायत करता है, तो वह केवल एक सूचक होता है, न कि कोई प्रभावित पक्ष। ऐसी शिकायत पर क्या कार्रवाई करनी है, यह पूरी तरह से हाईकोर्ट का विशेषाधिकार है।”
न्यायालय ने जोर देकर कहा कि यह कोई कानूनी अधिकार नहीं है कि शिकायतकर्ता हाईकोर्ट को विवश करे कि वह किसी न्यायाधीश पर प्रशासनिक कार्रवाई करे।
अदालत ने याचिकाकर्ता की शिकायत को “अपूर्ण, अविश्वसनीय और कल्पनात्मक” बताया। कोर्ट ने यह भी कहा कि शिकायत में कहीं भी यह नहीं बताया गया कि न्यायाधीश द्वारा कथित आश्वासन कब, कहां और कैसे दिया गया।
न्यायालय ने टिप्पणी की:
“वास्तविक मंशा यह प्रतीत होती है कि याचिकाकर्ता हाईकोर्ट से कुछ ऐसे तथ्यात्मक निष्कर्ष प्राप्त करना चाहता है, जिन्हें वह उमरिया सत्र न्यायालय में लंबित अपील में उपयोग कर सके।”
Haryana Financial Corporation v. Jagdamba Oil Mills (2002) 3 SCC 496 का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि पूर्ववर्ती निर्णयों को “यूक्लिड के प्रमेयों” की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए — निर्णय के तथ्य उसके सिद्धांत को निर्धारित करते हैं।
अंत में, अदालत ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा:
“मध्यप्रदेश की जिला न्यायपालिका के न्यायाधीश पहले ही दोहरे दबाव में काम कर रहे हैं — एक ओर हाईकोर्ट द्वारा उनके आदेशों की कठोर प्रशासनिक समीक्षा और दूसरी ओर ऐसे न्यायिक अधिकारियों पर दबाव बनाने के लिए की गई निराधार शिकायतें। यह प्रवृत्ति अत्यंत निंदनीय है और इसे कठोरता से रोका जाना चाहिए।”
न्यायालय का निर्णय
न्यायालय ने याचिका को न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग मानते हुए खारिज कर दिया। साथ ही, याचिकाकर्ता रजनीश चतुर्वेदी पर ₹50,000 की अनुकरणीय लागत लगाई गई। यह राशि मध्यप्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के खाते में दस दिनों के भीतर जमा करनी होगी, अन्यथा यह राजस्व बकाया के रूप में वसूली जाएगी।