मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि किसी न्यायिक अधिकारी द्वारा पारित आदेशों में भ्रष्टाचार या पक्षपात का कोई प्रमाण नहीं है, तो केवल न्यायिक आदेशों के आधार पर उसकी सेवा समाप्त नहीं की जा सकती। हाईकोर्ट ने जिला न्यायाधीश जगत मोहन चतुर्वेदी की बर्खास्तगी को खारिज करते हुए इसे ‘घोर अन्याय’ बताया और उन्हें सेवा से हटाए जाने की तिथि से सेवानिवृत्ति तक का वेतन 7% ब्याज सहित देने का निर्देश दिया। साथ ही, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक क्षति के लिए ₹5,00,000 का जुर्माना भी प्रतिवादियों पर लगाया।
न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति दिनेश कुमार पालीवाल की पीठ ने यह आदेश पारित किया।
मामले की पृष्ठभूमि
चतुर्वेदी वर्ष 1987 में सिविल न्यायाधीश वर्ग-2 के रूप में नियुक्त हुए थे और 2000 में उच्चतर न्यायिक सेवा में पदोन्नत हुए। उन्हें 24 फरवरी 2015 को चार्जशीट दी गई, जिसमें 2014 में व्यापमं से जुड़ी कुछ एफआईआर में अग्रिम जमानत देने को लेकर सवाल उठाया गया था। 19 अक्टूबर 2015 को उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और उनकी विभागीय अपील 1 अगस्त 2016 को खारिज हो गई।

चार्जशीट में चार आरोप थे, लेकिन केवल तीसरे आरोप में यह कहा गया कि कुछ आवेदकों को “बाहरी कारणों” से लाभ दिया गया। शेष तीन आरोप केवल जमानत आदेशों में भिन्नता की बात कहते हैं — बिना किसी बेईमानी या भ्रष्ट इरादे के आरोप के।
अदालत की विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ
कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो, केवल अलग-अलग आदेश देना सेवा समाप्ति का आधार नहीं हो सकता:
“प्रार्थी को केवल न्यायिक आदेश पारित करने के कारण समाज में जो अपमान, उसके परिवार को जो कष्ट और मानसिक, सामाजिक, आर्थिक क्षति हुई, जबकि रिकॉर्ड पर भ्र्ष्टाचार का एक कण मात्र भी सुसंगत सामग्री के रूप में उपलब्ध नहीं था, इसलिये यह न्यायालय आवश्यक समझता है कि ₹5,00,000/- (रुपये पाँच लाख मात्र) का हर्जाना प्रतिवादियों द्वारा साझा रूप से प्रार्थी को प्रदान किया जाए।”
पीठ ने कहा कि चार आरोपों में से केवल एक में ही भ्रष्ट या पक्षपातपूर्ण उद्देश्य का आरोप है:
“चार आरोपों में से, केवल आरोप क्रमांक 3 में ही भ्रष्ट और बाहरी कारणों का विशिष्ट आरोप लगाया गया है। शेष आरोपों में यह केवल कहा गया है कि प्रार्थी ने अलग-अलग अग्रिम जमानत याचिकाओं पर विभिन्न प्रकार के आदेश पारित किये।”
कोर्ट ने इस बात को भी रेखांकित किया कि किसी भी अभियुक्त ने, जिसकी जमानत याचिका खारिज हुई थी, यह शिकायत नहीं की कि उनसे कोई अनुचित मांग की गई थी:
“यह भी प्रासंगिक है कि प्रार्थी द्वारा जिन व्यक्तियों की जमानत याचिका खारिज की गई, उनमें से किसी ने भी यह शिकायत नहीं की कि उनकी याचिका इसलिये खारिज की गई क्योंकि वे किसी बाहरी मांग को पूरा नहीं कर सके।”
प्रशासनिक जांच में केवल एक गवाह था — मामले के विवेचक — जिनका बयान भी प्रार्थी के खिलाफ नहीं था:
“इस मामले में जाँच में एकमात्र गवाह विवेचक था, जिसने मात्र अपनी जाँच का विवरण दिया और प्रार्थी के खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया।”
न्यायिक दृष्टांतों का संदर्भ
कोर्ट ने कृष्ण प्रसाद वर्मा बनाम बिहार राज्य [(2019) 10 SCC 640], के.सी. राजवानी बनाम म.प्र. राज्य, और अभय जैन बनाम राजस्थान हाईकोर्ट जैसे मामलों का हवाला देते हुए दोहराया:
“जहाँ जिला न्यायाधीश विधि के स्थापित सिद्धांतों के विपरीत आदेश पारित करता है, लेकिन कोई बाहरी कारण नहीं है, वहाँ उचित उपाय यही है कि प्रशासनिक पक्ष पर उक्त त्रुटियों को दर्ज किया जाए — न कि सेवा समाप्त की जाए।”
“उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायपालिका के न्यायाधीशों के बीच का संबंध सामंती प्रभु और सेवक जैसा है।”
“अधीनस्थ न्यायाधीशों की मानसिक गुलामी पूरी तरह और अपूरणीय रूप से पूर्ण हो चुकी है, ऐसा प्रतीत होता है।”
अंतिम आदेश
अदालत ने आदेश दिया:
“प्रार्थी इस बीच सेवा से सेवानिवृत्त हो चुका है। तथापि, उसके साथ हुए घोर अन्याय को देखते हुए, यह न्यायालय निर्देशित करता है कि उसे सेवा समाप्ति की तिथि से लेकर नियत सेवानिवृत्ति की तिथि तक का वेतन 7% वार्षिक ब्याज सहित प्रदान किया जाए, तथा उसकी समस्त पेंशन संबंधी सुविधाएँ बहाल की जाएँ।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि आदेश 90 दिन के भीतर लागू नहीं होता है, तो प्रार्थी अवमानना याचिका दायर कर सकता है।