मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, एक वरिष्ठ अधिवक्ता के खिलाफ POCSO अधिनियम और भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत दर्ज की गई FIR को रद्द कर दिया है। न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा ने इस मामले को “भयावह और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन” करार देते हुए कहा कि ऐसी कार्यवाही को जारी रखने की अनुमति देना कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग होगा।
कोर्ट ने आगे बढ़ते हुए, रीवा के पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया है कि वे याचिकाकर्ता सहित अन्य व्यक्तियों को ब्लैकमेल करने और परेशान करने के इरादे से “झूठी और तुच्छ शिकायतें” दर्ज कराने वाली महिला शिकायतकर्ता के खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू करें।
मामले की पृष्ठभूमि
यह रिट याचिका एक वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा दायर की गई थी, जिसमें पुलिस थाना सिविल लाइंस, रीवा में दर्ज FIR संख्या 255/2025 को रद्द करने की मांग की गई थी। इस FIR में BNS, 2023 की धारा 65(2) और POCSO अधिनियम की धारा 5 और 6 के तहत आरोप लगाए गए थे।

मामले की शुरुआत तब हुई जब शिकायतकर्ता ने एक आपराधिक पुनरीक्षण मामले के लिए याचिकाकर्ता वकील की सेवाएं लीं। याचिकाकर्ता के अनुसार, जब उन्होंने मामले के रिकॉर्ड की जांच की, तो उन्हें पता चला कि शिकायतकर्ता का दूसरे लोगों के खिलाफ भी इसी तरह के झूठे आरोप लगाने का इतिहास रहा है। इसके बाद, उन्होंने 27 सितंबर, 2024 को मामले से हटने का फैसला किया और अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) दे दिया।
वकील के पीछे हटने के बाद, शिकायतकर्ता ने कथित तौर पर बदले की भावना से कई शिकायतें दर्ज कीं। पहले उसने 21 अक्टूबर, 2024 को एक कानूनी नोटिस भेजा जिसमें केवल फीस वापसी की मांग की गई थी, यौन दुराचार का कोई जिक्र नहीं था। बाद में, 30 नवंबर, 2024 को उसने याचिकाकर्ता पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया। इसके बाद, उसने 20 दिसंबर, 2024 को हाईकोर्ट परिसर में वकील पर अपनी दो वर्षीय बेटी के साथ बलात्कार करने का एक और गंभीर आरोप लगाया। पुलिस ने इस आरोप की गहन जांच की और CCTV फुटेज और याचिकाकर्ता के उस दिन नई दिल्ली में होने के सबूतों के आधार पर इसे झूठा पाया और जांच बंद कर दी।
मौजूदा FIR, जो 11 जून, 2025 को दर्ज की गई, में आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता 7 और 8 जून, 2025 की दरमियानी रात को शिकायतकर्ता के घर में घुसा और उसकी बेटी के साथ बलात्कार किया।
कोर्ट के समक्ष दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अनिल खरे और श्री नमन नागराथ ने तर्क दिया कि यह FIR उनके मुवक्किल को ब्लैकमेल करने और उन पर दबाव बनाने का एक दुर्भावनापूर्ण प्रयास था। उन्होंने बताया कि पुलिस ने शुरू में शिकायतकर्ता के झूठे आरोप लगाने के इतिहास को देखते हुए रोजनामचा सान्हा में प्रविष्टि करके शिकायत को बंद कर दिया था, लेकिन कुछ ही घंटों बाद FIR दर्ज कर ली।
वहीं, राज्य सरकार के वकील श्री ए. एस. बघेल ने स्वीकार किया कि पूरी जांच के बाद एक क्लोजर रिपोर्ट सक्षम अदालत में दायर कर दी गई है। उन्होंने बताया कि मेडिकल रिपोर्ट, गवाहों के बयान और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों के विश्लेषण सहित जांच में याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोपों में कोई सच्चाई नहीं पाई गई।
कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा ने मामले के पूरे इतिहास की समीक्षा करते हुए झूठी शिकायतों का एक स्पष्ट पैटर्न पाया। फैसले में इस बात का उल्लेख किया गया कि महिला द्वारा पहले भी की गई शिकायतें, जिनमें से एक में उसकी अपनी बड़ी बेटी ने भी आरोपों का समर्थन नहीं किया था, अदालतों द्वारा खारिज कर दी गई थीं।
कोर्ट ने इस बात पर “आश्चर्य” व्यक्त किया कि पुलिस ने रोजनामचा में यह दर्ज करने के कुछ ही घंटों बाद FIR कैसे दर्ज कर ली कि शिकायत में कोई दम नहीं है और “शिकायतकर्ता को लोगों पर झूठे आरोप लगाने की आदत है।”
जांच में कई विरोधाभास सामने आए:
- शिकायतकर्ता के पति ने कहा कि घटना की रात उनके घर में कोई नहीं घुसा था।
- मकान मालिक और अन्य किरायेदारों ने पुष्टि की कि शिकायतकर्ता “झूठी शिकायतें करने की आदी है।“
- MLC रिपोर्ट और फॉरेंसिक (DNA) रिपोर्ट में बलात्कार के आरोप की पुष्टि नहीं हुई।
कोर्ट ने ‘हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि FIR को रद्द करने की शक्ति का प्रयोग दुर्लभ मामलों में ही किया जाना चाहिए, खासकर जब कार्यवाही “दुर्भावनापूर्ण इरादे से प्रेरित हो।“
‘हाजी इकबाल @ बाला बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य फैसले का जिक्र करते हुए, न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि यद्यपि बलात्कार एक जघन्य अपराध है, लेकिन “बलात्कार का झूठा आरोप भी आरोपी के लिए उतनी ही पीड़ा, अपमान और क्षति का कारण बन सकता है।”
अंतिम निर्णय और निर्देश
अभियोजन को दुर्भावनापूर्ण और कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग मानते हुए, हाईकोर्ट ने FIR संख्या 255/2025 और उससे जुड़ी सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।
मामले का निपटारा करने से पहले, कोर्ट ने शिकायतकर्ता के आचरण पर संज्ञान लिया। POCSO अधिनियम की धारा 22 और BNS, 2023 की धारा 240 और 248 का उल्लेख करते हुए—जो किसी को चोट पहुंचाने के इरादे से झूठी शिकायतें दर्ज करने के लिए दंड का प्रावधान करती हैं—कोर्ट ने कड़े निर्देश जारी किए।
आदेश में कहा गया, “शिकायतकर्ता को झूठी शिकायतें करने की आदत है जो कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन है। यह न केवल आरोपी व्यक्ति का अपमान करता है, उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करता है, बल्कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा को भी धूमिल करता है, जो सम्मान के साथ जीने के अधिकार को छीन लेता है।“
कोर्ट ने रीवा के पुलिस अधीक्षक को संबंधित कानूनी प्रावधानों के तहत “शिकायतकर्ता के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने” का निर्देश दिया। यह भी आदेश दिया गया कि भविष्य में यदि इस व्यक्ति द्वारा कोई शिकायत की जाती है, तो कोई भी कठोर कार्रवाई करने से पहले एक प्रारंभिक जांच की जानी चाहिए।