राज्य की गलती का खामियाजा अभ्यर्थियों को नहीं भुगतना चाहिए — आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 2002 में नियुक्त DSC-1989 चयनितों को प्रतीकात्मक वरिष्ठता देने के आदेश को बरकरार रखा

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस रवि नाथ तिलहरी और जस्टिस चल्ला गुना रंजन शामिल थे, ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में आंध्र प्रदेश प्रशासनिक अधिकरण (ट्रिब्यूनल) के आदेश को बरकरार रखा है। उक्त आदेश में राज्य सरकार को निर्देश दिया गया था कि वह वर्ष 2002 में नियुक्त किए गए DSC-1989 चयनित अभ्यर्थियों को काल्पनिक वरिष्ठता (notional seniority) और सेवा संबंधी लाभ प्रदान करे। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि इन अधिक मेधावी अभ्यर्थियों को, जिन्हें प्रशासनिक त्रुटियों के कारण समय पर नियुक्ति नहीं मिल सकी, 1996 में नियुक्त अभ्यर्थियों के समकक्ष माना जाना चाहिए।

पृष्ठभूमि

प्रतिवादीगण, कुल 11 अभ्यर्थी, DSC-1989 के तहत स्पेशल ग्रेड टीचर्स (SGT) पद के लिए चयनित हुए थे। हालांकि उन्होंने अधिक अंक प्राप्त किए थे, उन्हें वर्ष 1996 में नियुक्त नहीं किया गया, जबकि उनसे कम मेरिट वाले अभ्यर्थियों को नियुक्त कर लिया गया था। उच्च न्यायालय के W.P.No.10586 of 1999 एवं संबद्ध याचिकाओं में निर्णय के बाद ही उन्हें 11.01.2002 को नियुक्ति मिल सकी।

नियुक्ति के बाद उन्हें उस दिनांक से नियमित वेतनमान पर रखा गया। तत्पश्चात उन्होंने वर्ष 1996 में नियुक्त शिक्षकों के समान वरिष्ठता एवं अन्य लाभों की मांग की, जिनमें ऑटोमैटिक एडवांसमेंट स्कीम और G.O.Ms.No.21 दिनांक 18.05.2010 के अंतर्गत पेंशनरी लाभ शामिल थे। किंतु, 30.07.2012 को जिला शैक्षिक अधिकारी द्वारा उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया, जिससे वे ट्रिब्यूनल में O.A. No. 8668 of 2012 दायर करने को बाध्य हुए।

ट्रिब्यूनल का निर्णय

ट्रिब्यूनल ने यह पाया कि याचिकाकर्ता उसी चयन प्रक्रिया का हिस्सा थे और बेहतर मेरिट के बावजूद उन्हें नियुक्ति से वंचित किया गया। ट्रिब्यूनल ने कहा:

“…आवेदकों की नियुक्तियों को DSC-1989 के अंतर्गत की गई नियुक्तियों के रूप में ही माना जाना चाहिए और उन्हें 1996 में नियुक्त उनके सहकर्मियों के समकक्ष सेवा में माना जाना चाहिए।”

ट्रिब्यूनल ने मूल आवेदन को स्वीकार करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी संबंधित लाभों को काल्पनिक रूप से, G.O.Ms.No.21 सहित, याचिकाकर्ताओं को प्रदान करे।

राज्य सरकार के तर्क

राज्य सरकार ने ट्रिब्यूनल के निर्णय को वर्तमान रिट याचिका में चुनौती दी और तर्क दिया कि:

  • याचिकाकर्ताओं की नियुक्ति वर्ष 2002 में हुई, इसलिए वे 1996 में नियुक्त अभ्यर्थियों के समकक्ष नहीं माने जा सकते।
  • 1996 में नियुक्त अभ्यर्थियों को ₹398 प्रतिमाह की समेकित वेतन पर रखा गया था, जबकि याचिकाकर्ताओं को सीधे ₹3750–7650 के नियमित वेतनमान पर नियुक्त किया गया।
  • G.O.Ms.No.21 केवल उन शिक्षकों पर लागू होता है जिन्हें प्रारंभ में समेकित वेतन पर नियुक्त किया गया था, न कि बाद में नियमित वेतन पर नियुक्त व्यक्तियों पर।
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न्यायालय का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के इन सभी तर्कों को अस्वीकार कर दिया और स्पष्ट किया कि वर्ष 1996 में नियुक्ति न हो पाने का कोई दोष याचिकाकर्ताओं का नहीं था। न्यायालय ने कहा:

“…इन अभ्यर्थियों को किसी त्रुटि के कारण नियुक्ति नहीं मिल सकी… अतः इन्हें 1996 में नियुक्त अभ्यर्थियों के समकक्ष रखा जाना आवश्यक है, क्योंकि ये सभी DSC-1989 चयन प्रक्रिया के ही अभ्यर्थी हैं…”

कोर्ट ने Balwant Singh Narwal v. State of Haryana [(2008) 7 SCC 728] और Surendra Narain Singh v. State of Bihar [(1998) 5 SCC 246] में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सिद्धांतों पर भरोसा किया, जिनमें यह कहा गया है कि प्रशासनिक त्रुटियों के कारण समय पर नियुक्ति से वंचित मेधावी अभ्यर्थियों को वरिष्ठता या सेवा लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता।

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इसके अतिरिक्त, आंध्र प्रदेश राज्य एवं अधीनस्थ सेवा नियम, 1996 के नियम 33(b) का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि वरिष्ठता का निर्धारण चयन सूची में मेरिट के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि नियुक्ति में देरी के आधार पर।

निर्णय

रिट याचिका को खारिज करते हुए उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष दिया:

“…याचिकाकर्ता भी 1996 में नियुक्त अभ्यर्थियों के समकक्ष लाभ पाने के पात्र हैं, और ट्रिब्यूनल द्वारा दिया गया आदेश पूर्णतः उचित है।”

अंततः न्यायालय ने राज्य सरकार को ट्रिब्यूनल के आदेश का पालन करते हुए काल्पनिक वरिष्ठता और अन्य लाभ प्रदान करने का निर्देश दिया।

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